सफलता की जननी त्याग
जलाता है खुद को जब
तभी सूरज चमकता है
चलता है अंगारों पर जो
वही मंजिल पर पहुंचता है
है रीत यही इस जग की
घड़ा तपकर ही पकता है
चाह से कुछ भी नहीं होता
अंधेरा रोशनी से ही मिटता है
चीरता है जब इस धरा को
तभी अंकुर फूटता है
करोगे कोशिश जब तुम
तभी फल पेड़ों से टूटता है
बनता नहीं कोई यूं ही नीलकंठ
ज़हर का प्याला पीना पड़ता है
नहीं बनता कोई मर्यादा पुरुषोत्तम यूं ही
त्याग कर राज वनों में भटकना पड़ता है
होता नहीं तेज चेहरे पर सभी के
घोर तपस्या करनी पड़ती है
कोई बन नहीं जाता दधिचि यूं ही
अपनी हड्डियां गलानी पड़ती है
हर कोई मसीहा नहीं बन पाता
उसके लिए गांधी बनना पड़ता है
अपने अधिकारों को पाने के लिए
ताकतवर से भी लड़ना पड़ता है
दिल तो धड़कता है सभी का
एक तड़पन जगानी पड़ती है
यूं ही नहीं मिल जाती मंज़िल
दिल में आग जलानी पड़ती है।