सफर “मैं” तक का ।
मन की अथाह वेदना को
प्रतिदिन घूट-घूट पी लेती थी ।
कभी हँसकर तो कभी रोकर
ज़िंदगी जी लिया करती थी ।
विवाह कर जब मैं अपने पति के संग, उनके घर में आई थी,
बेसुध और बेपरवाह – सी, अपने सपने भी समेटकर लाई थी ।
सबने खूब समझाया, अरे पगली ! अब तुझे भी बदलना होगा,
मैं हँसकर बोली, “नहीं, नहीं … सब रिश्तों में बस ‘जी’ ही तो लगाना होगा ।।
वाणी के ऐसे तीक्ष्ण प्रहारों को, मैंने न कभी झेला था
पग-पग पर छोटी छोटी गलतियों पर, सबने खूब सुनाया था ।
हर रात सिसकियाँ लेकर ही मैं करवट में सो जाया करती थी,
आश्चर्य तो यह था मेरे दोस्तों ………………………………………..
मेरी उन वेदनाओं से मेरे पति को कोई वेदना न पहुँचती थी ।
दिल याद किया करता था, हर पल बीते उन लम्हों को,
मम्मी डांट लगाती और कहती “ठहर जा ! आज बोलती हूँ तेरे पापा को। “
शाम होते – होते मम्मी सब भूल जाया करती थी,
रात्रि बेला में मीठी डांट लगाकर, खुद प्यार से खिलाती थी । ।
दिल बेचैन हो जाता था, उन लम्हों को याद कर,
यहाँ तो कैद कर रखा था सबने, मेरे परौं को काटकर।
पापा कहते ! मत हार मान बेटी एक दिन सब ठीक हो जाएगा,
बुरा वक़्त कट जाएगा और नया सवेरा लाएगा ।।
जिस घर में नई बहू का छत पर कपड़ा सुखना भी वर्जित था,
दिन-रात साड़ी पहने सिर पर पल्लू रखना ज़रूरी था ।
उसी घर में अपने स्वाभिमान के लिए रोज़ पिसती थी मैं,
हर पल अपने पति से अपने वजूद के लिए लड़ती थी मैं …
बदलाव की प्रतिज्ञा लेकर भी, मैं हार जाया करती थी,
इसलिए नहीं, कि कमजोर थी मेरे दोस्तों…
एक नन्ही परी में जीवन में,
दस्तक दे गई थी ….
एक-एक करके दिन, कुछ यूँ ही कट रहे थे,
कुछ भी अपने मन का कर बैठूँ, बातें सुनाया करते थे।
दो ही विकल्प शेष बच गए थे मेरे लिए,
पशुओं की भाँति जिऊँ या करूँ कुछ अपने लिए ?
एक दिन मेरी माँ बोली, “तू पोछ ले अपने आंसुओं को,
यह सब उसी विधाता का लेखा है”
नारी का तो समस्त जीवन ही,
उसके बलिदानों की गाथा है ।
तभी ……………………………………………
पोछ कर अपने आँसुओं को मैंने अपने मन में ठानी थी,
कहानी ऐसे नारियों की, मुझको नहीं दोहरानी थी ।
बदलकर अपनी ज़िंदगी को, एक मशाल जलानी थी,
आगे आने वाली नारियों को, एक नई राह दिखलानी थी।
गृहणी से शिक्षिका बनने तक की मेरी कहानी । आशा है आपको पसंद आए ।