सफर जिन्दगी का
करते
अपना पराया
जिन्दगी
यूँ ही गुजर
जाती है
आया
खाली हाथ है
खाली ही
चला जाता है
ऐ जिन्दगी
तू इतनी भी
हंसीं नहीँ है
कि
अपना पराया
करते तूझे
जिया जाये
वो तो
हम ही हैं
जो तूझे
ढोये जा
रहेँ हैं
करते नहीँ
माता पिता
अपना पराया
पालते है वो
भूखे कह कर
अपने मुँह
का कौर
खिला कर
आ जाता है
जब सब हाथ
संभल जाता है
जब पंछी
उड़ जाता है
अपनों को ले कर
अपने पराये का
खेल है निराला
नहीँ है कोई
अपना प्यारा
जब तलक है
स्वार्थ उनका
पराये को भी
बना लेते है
अपना
निभाओ
रिश्ता ऐसा
दूध में मिले
पानी जैसा
मत बोलो
वह पराया है
मत बोलो
यह अपना है
खाये और रहेँ
मिलबांट कर
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल