सपने
गीतिका
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सपने आते हैं आंखों में, खिल जाता मन।
खिल जाने के बाद सहज क्यों, मुरझाता मन।
कौन किसी का साथ निभाता, है मुश्किल में।
छल की बातें समझ नहीं अब, क्यों पाता मन।
आकर्षण की दुनिया में है, विचरण करता।
मौन शब्द लेकिन फिर भी है, कुछ गाता मन।
विपरीत हमारी चाहत के, कुछ घटता है।
तभी स्वयं को प्रिय बातों से, बहलाता मन।
भँवरों जैसा इस डाली से, उस डाली तक।
खिलते फूलों के मौसम में, भरमाता मन।
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-सुरेन्द्रपाल वैद्य