सन्नाटा
यह सन्नाटा,
सन्नाटा यह दिल को चुभता है,
अक्सर माँगा है अवकाश मैंने,
और कुछ क्षण फुर्सत के,
अपनी व्यस्तताओं के चलते,
कभी दिन का तो न कभी रात का,
ख्याल रहा,
दिल और शरीर दोनों,
करते रहे प्रतिकार अपने ढंग से,
सब अनदेखा कर मजबूरिओं का,
ढोंग रच कर स्वांग रचा कलाकार का,
किसी के पूछने पर हमेशा कहा,
“अजी, अभी फुरसत कहाँ,
हमें कहाँ है अवकाश जरा,
काश मिल जाए तो ले मज़ा ज़िंदगी का,
और चखें हम भी स्वाद इसका
आज फुरसत है , अवकाश भी है,
पर चुभ रहा यह अवकाश,
यह सन्नाटा सा,
जो हमेशा से चाहा,
आज लग रहा क्यों नागवार सा,
आज भली लग रही व्यस्तता
और नीरसता अपनी,
सुख के क्षण भी रास नहीं आए
इस फुरसत से हम कुछ यूँ है घबराए,
कि चाह कर भी इसे न अपना पाए,
याद आयी कवि की पंक्तियाँ,
“कहीं भली है कटुक निबौरी
कनक कटोरी की मैदा से,”