सदियाँ लगीं संभलने में
सदियाँ लगीं संभलने में
दिल का ज़ख़्म भरने में
हाथ समुन्दर का ही है
नदियों को खाली करने में
मेरे पाँव नहीं थकते
उनकी गलियों में चलने में
सोलह बरस लगेंगे भँवरे
कलियों को फूल बनने में
हमको अज़िय्यत हुई ‘धरा’
वो तो माहिर थे बदलने में
त्रिशिका श्रीवास्तव धरा
कानपुर (उत्तर प्रदेश)