सदा सभी को पुकारती है
अज़ान होती या आरती है
सदा सभी को पुकारती है
ये प्यार माँ का दुलार देखो
नज़र कभी माँ उतारती है
करीब सागर के जब वो पहुंची
नदी भी बांहें पसारती है
इसी पे इल्ज़ाम क्यों लगेगा
ये ज़िन्दगी तो संवारती है
चराग़े-उल्फ़त जला के रक्खो
ये रौशनी दिल निखारती है
सुकूँ नहीं है न चैन दिल को
वो आँख जबसे निहारती है
जहाँ ठिकाना है आपका अब
वो दिल का कोना शरारती है
जो आरज़ू वस्ल की है दिल में
हमें सताकर के मारती है
बला की ‘आनन्द’ जिसमें हिम्मत
वही नज़र कुछ संवारती है
– आनन्द किशोर