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8 Dec 2023 · 5 min read

*सत्संग शिरोमणि रवींद्र भूषण गर्ग*

सत्संग शिरोमणि रवींद्र भूषण गर्ग
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रवीन्द्र भूषण गर्ग उच्च कोटि के संत एवं महापुरूष थे। सीधी-सादी वेशभूषा में कुर्ता-पायजामा पहने हुए मुखमंडल पर तनिक मुस्कराहट के साथ गम्भीरता का समावेश किए हुए उनका व्यक्तित्व एक चिन्तक तथा भक्त शिरोमणि व्यक्ति का असाधारण पुट लिए हुए रहता था। उनमें विनम्र भाव था। अहंकार उन्हें छू भी नहीं गया था। बड़े प्रेम में वह इस संसार में सभी से व्यवहार करते थे तथा उसी को आत्मबल मानते थे।

दस अगस्त 2008 को जब उनका देहान्त हुआ, तब उनकी आयु लगभग 72-73 वर्ष की थी। वह एक अध्यापक थे तथा रामपुर में प्रधानाचार्य के पद से सेवानिवृत्त हुए थे। यों तो गर्ग साहब रहने वाले मूल रूप से बिजनौर के थे किन्तु सेवाकाल में रामपुर रहने के कारण यह स्थान उन्हें इतना प्रिय लगा कि वह यहीं बस गए। उनमें चिन्तन तथा वैराग्य-भाव की प्रधानता तो अध्यापन काल में भी विद्यमान थी, तथा वह यदा-कदा अपने भाषणों से जनसमुदाय को स‌द्विचारों की ओर मोड़ने का कार्य बहुत प्रमुखता से करते रहते थे। किन्तु जीवन के अन्तिम बारह वर्ष जबकि उन्होंने अवकाश-प्राप्त जीवन जिया था, पूरी तरह अध्यात्म तथा भक्ति मार्ग को ही समर्पित थे।

गर्ग साहब एक उच्च कोटि के कथावाचक थे। रामपुर के बाहर वह प्रायः कथा कहने के लिए जाते थे तथा काफी-काफी दिनों की कथा कहा करते थे। एक पुरानी कहावत है “घर का जोगी जोगिया, आन गाँव का सन्त ।” इस कसौटी पर गर्ग साहब को जितनी महत्ता रामपुर में मिलनी चाहिए थी, उतनी शायद नहीं मिली। वैचारिकता से सम्पन्न एक छोटा सा वर्ग उनकी प्रतिभा तथा कौशल से जरूर परिचित था तथा इस वर्ग के हृदय में गर्ग साहब के प्रति बहुत सम्मान रहता था। किन्तु साधारण जन-समाज जो तड़क-भड़क तथा गेरूए वस्त्रों में ही साधुत्व को ढूॅंढता है-गर्ग साहब की साधुता से काफी हद तक अपरिचित रहा। गर्ग साहब तो मामूली सफेद कुर्ता पायजामा पहनते थे। यदा कदा टोपी भी पहनते थे। गेरूए कपड़ों की कौन कहे, उनके गले में रूद्राक्ष की माला भी पहनी हुई किसी को नहीं दिखती थी। उनमें कोई बनावटीपन नहीं था। लम्बी-चौड़ी डींगे मारना अथवा अपनी महत्ता को स्वयं ही किसी भॉंति प्रदर्शित करने का भी उनका स्वभाव नहीं था। परन्तु जिस प्रकार चन्दन का वृक्ष अपनी खुशबू से ही अपना पता बता देता है, उसी प्रकार गर्ग साहब की साधुता उनके प्रभामंडल से बाहर झांकती रहती थी। उनके जीवन में वैराग्य-भाव तो प्रबल था ही, दिनोंदिन इस संसार की नश्वरता का बोध भी उनको बढ़ता जाता था। समाज में तीजे अथवा उठावनी का प्रचलन रहता है। इसमें समाज के लोग एकत्र होकर दिवंगत की मृत्यु पर शोक प्रकट करते हैं। गर्ग साहब को एक नहीं अपितु दसियों बार तीजे की शोकसभा में संसार की नश्वरता पर विचार प्रकट करते देखा गया था। करीब आधे घंटे के भाषण में वह देह को नाशवान बताते थे तथा सदैव इस बात को याद रखने योग्य कहते थे कि सभी व्यक्तियों को एक दिन इस संसार से अवश्य जाना है। वैराग्य-विषयक एक या दो गीत भी वह इस अवसर पर सुन्दर कंठ से जनता के सामने गाकर सुनाते थे। यूँ उनका गाना सामान्य रूप से बिना तबले-बाजे का आश्रय लिए होता था किन्तु उसमें एक मधुर संगीत की ध्वनि पैदा जरूर होती थी। अक्सर वह गीत की पंक्तियों को श्रोताओं से दोहराने का कार्य भी करते थे। इससे समूचा माहौल भीतर तक वैराग्य-भाव में डूब जाता था। उनका शरीर तनिक भारी था, किन्तु कर्मठता में कोई कमी नहीं थी। वह जिम्मेदारियाँ लेने से परहेज नहीं करते थे तथा जिम्मेदारियों को लेकर उनके निर्वहन में कोई शिकायत का मौका किसी को नहीं देते थे।

सेवानिवृत्ति के बाद वह जिस संस्था से पूरी तरह, तन, मन, धन से जुड़ गए थे-वह ब्रजवासी लाल जी भाई साहब द्वारा स्थापित श्रीराम सत्संग मण्डल था। यह सत्संग मंडल नगर के मध्य स्थित अग्रवाल धर्मशाला के सत्संग भवन में दैनिक सत्संग चलाता था। सत्संग में गर्ग साहब की नैसर्गिक अभिरूचि ने उन्हें सहज ही सत्संग मंडल से जोड़ दिया। संतों की कथाऍं सुनकर सद्विचारों के मूल्यवान मोती प्राप्त करने के लिए वह प्रयत्नशील थे। बाद में वह सत्संग मंडल के महामंत्री बने और तब कथा-श्रवण ही नहीं अपितु कथा-आयोजन के कार्य भी उनकी जिम्मेदारियों में शामिल हो गए। कथावाचकों के भोजन, नाश्ता, दूध, चाय तथा ठहरने आदि के तमाम प्रबन्ध उन्हें देखने पड़ते थे। कथावाचकों से सम्पर्क करना तथा उन्हें टेलीफोन अथवा पत्र द्वारा आमंत्रित करना तो अपने आप में उनका कार्य था ही किन्तु कथावाचकों का चयन करके श्रेष्ठतम प्रवचनकर्ताओं को आमंत्रित करना भी कम टेढ़ी खीर नहीं होती। प्रवचन के प्रारम्भ में अथवा अंत में संचालन करते हुए गर्ग साहब जो विचार व्यक्त करते थे, उनसे कथा-कार्यक्रम में चार चाँद लग जाते ‘थे। वास्तव में वह ऐसे व्यक्ति थे, जिनमें पूर्णता थी, गहराई थी, मौन था तथा शांति थी। वह जब बोलने के लिए खड़े होते थे, तो उनके मुख से नपे-तुले शब्द ऐसे निकलते थे मानों किसी ने तराशे हुए हीरे मखमल की प्लेट में सजाकर रख दिए हों। शब्द बहुत सहजता से उनके भाषण में आते थे तथा रस-वर्षा करने में वे पूर्णतः समर्थ थे।

रामचरितमानस के वह मर्मज्ञ थे। अनेकानेक चौपाइयाँ उन्हें कंठस्थ थीं। प्रतिदिन वह रामचरितमानस के कुछ अंश का सत्संग भवन में पाठ करते थे, उनकी व्याख्या करते थे तथा उपस्थित जन समुदाय को-जो संख्या में भले ही थोड़ा हो-अपने उपदेशों से तृप्त करते थे। वास्तव में भक्त जब कथा कहता है या उपदेश देता है तो वह आत्मलीन अवस्था में पहुंच जाता है तथा ऐसे में वह खुद ही कथा कहता है तथा खुद ही वो कथा सुनाता है। “वही वक्ता है, श्रोता भी, अजब सी यह पहेली है “वाली बात ऐसे में उस पर चरितार्थ होती है।

हमारे पूज्य पिताजी श्री राम प्रकाश सर्राफ ने सुंदरलाल इंटर कॉलेज के कार्यक्रमों में तथा बाद में हमने टैगोर शिशु निकेतन के कार्यक्रमों में उनके असाधारण व्यक्तित्व का उपयोग अध्यक्षीय आसन की शोभा बढ़ाने के लिए कई बार किया था। उन की उपस्थिति से वास्तव में कार्यक्रम में चार चॉंद लग जाते थे।

गर्ग साहब का जीवन संसार में रहकर संसार से अलिप्त रहने की साधना का प्रतीक था। जीवन की पूर्णता के लिए यह आवश्यक है कि हम शरीर को तथा शरीर से जुड़े सुख-वैभव आदि के प्रति अपने मोह को निरन्तर कम करते हुए ईश्वर की आराधना की ओर प्रवृत्त हों। जीवन का लक्ष्य स्वयं को जानना है तथा अपने भीतर बैठे ईश्वरीय अंश की विद्यमानता का अहसास करना है। भक्ति हमें इसी मार्ग पर ले जाती है जब हम स्वयं को विस्मृत कर देते हैं, केवल उन्हीं क्षणों में हम ईश्वर के सर्वाधिक निकट होते हैं। गर्ग साहब में यह दिव्य गुण विद्यमान थे। अन्त में चार पंक्तियाँ-

धन्य-धन्य वे जिनका जीवन सत्संगों में बीता
धन्य-धन्य मद मोह लोभ से जीवन जिनका रीता
रोज सुबह रामायण की सुन्दर चौपाई गाते
धन्य-धन्य हृदयों में जिनके दशरथनन्दन सीता
——————————————————-
लेखक: रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 9997615451
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नोट : यह श्रद्धॉंजलि लेख सहकारी युग हिंदी साप्ताहिक, रामपुर 18 अगस्त 2008 अंक में प्रकाशित हो चुका है।

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