सत्य को जिया जाता है ,खोजा नही करते
आज बेशक हृदय में कवायद उठी की आखिर में यह सत्य क्या है । समाज मे ,परिवार में , और विभिन्न दफ्तरों में भी कहते हैं लोग सत्य बोलो , अन्यथा भगवान माफ नही करेंगे । , मेरा मन मैं क्यो सत्य बोलू , झूठ नही बोल सकता क्या । तर्क के रूप में सिक्के दो पहलू है चित भी है पट भी , तो मैं सत्य क्यो बोलू ।
खैर सत्य क्या इस पर जिक्र करते हैं , लोग कहते हैं सत्य जिया जाता है ,सिखया नही जाता । अब ये कौन सी बात है । कोई सिख्याएँगे नही तो सत्य बोलेंगे कैसे । उदाहरण स्वरूप घर मे बचपन से ही सिखया जाता हैं , बेटा सत्य बोलो । कहाँ फस गए ,इस सत्य के चक्कर मे , की जिया जाता है, सिखाया नही जाता । मस्तिष्क पर दबाब डालते ही पता चला , “सत्य को अनुभूत किया जाता ,परिभाषित नही ” ।
शायद ही अतिप्राचीन समय मे अनेक दार्शनिक और मनीषियों ने सत्य की परिभाषा देने की कोशिश की , लेकिन उन्होंने सिर्फ उसे स्पर्श किया , और शब्दो को परिबद्ध नही कर पाए की वास्तव में सत्य क्या है ।
गांधी का ही जिक्र करे , उन्होनो भी सत्य अहिंसा के मार्ग पर चलने को कहा । उन्होंने पहले कहाँ की , ईश्वर को सत्य कहता हूँ ,और अब सत्य ही ईश्वर है । अर्थात जिसमे चित आनंद की सहानुभूति हो जाये वही सत्य है ।तभी तपाक से प्रश्न उठता है कि जब देश का विभाजन हुआ , जिसमे दो कौम और दो दिल का बटवारा हो गया ,तब तो सत्य और अहिंसा की नींव ही गिर पड़ी । न तो किसी दिल मे चित और आनंद ही सहानुभूति हुई ,और नही प्रेम का उद्वभव । तब कैसे कह दे वास्तव में यह सत्य है । कुछ नही समझ आया , की सत्य क्या है , सत्य को कैसे जिये , और सत्य कौन सिखाएगा ? ये तो वही हो गया कि गूंगे से पूछो की गुड़ कैसा है । और चींटी से कहो जरा हिमालय की व्याख्या करो ।
ठीक है मान लेते ही कि सत्य को अनुभूत किया , पर आज आधुनिक युग हैं , कैसे विस्वास कर ले कि यह सत्य बोल रहा है ।
इतना तो स्पष्ट है यह समस्या वास्तविक है । सत्य के कम से कम दो आयाम मिलते हैं ,एक तो सृष्टि का सत्य ,दूसरा जीवन का सत्य ।
सृस्टि के सत्य को जानने के लिए वैज्ञानिकों ने बहुत कोशिश की , और आज तक सौर मंडल से बाहर ही निकल पाए कि, उन्हें पता ही नहीं चला कि , ब्रम्हाण्ड कब बना , कितने दूरी में फैला , कितने वर्ष तक रहेगा , और कब खत्म होगा । कुछ नही पता , तो फिर इनके बातों को सत्य क्यो मानें ।वही हाल हैं कि चींटी से कहो प्रियवर जरा हिमालय की व्याख्या कर दो ।
दूसरी बात है जीवन की सत्य की , आज तक नही पता चला कि हम मानव जाति और जानवर जाति , इस पृथ्वी पर “जी” क्यो रहे है , कभी सोचा भी नही है । की वास्तव में सत्य की परिभाषा इतनी जटील और दुरूह हैं खैर सत्य की परिभाषा विभिन्न महापुरुषों और दार्शनिको के नज़र में अलग अलग है । चाहे भगत सिंह , स्वामी विवेकानंद हो , या गांधी हो , और महाभरत का “अहिंसा परमो धर्म:” हो सबका अपना अपना तरीका है , किसी को सत्य के रूप में स्वाधीनता दिखती , किसी को देश की एकता और अखंडता , तो किसी को समाज मे रहने वाले गरीबो और दिन दुःखियों में ,और किसी को ईश्वर में ही सत्य दिखता है ।
इसलिए जब कोई इंसान समाज मे ये और परिवार में देखता है कि सभी लोग सत्य बोल रहे हैं तो हम भी अनुसरण कर लेते हैं । उसी भांति जैसे उर्वर भूमि फसल उगलने के लिए सैदव तैयार रहती हैं ।