सत्यता
पूर्ण सत्य का अस्तित्व नहीं होता।
जबकि सत्य सामयिक परिस्थितियों के सापेक्ष है । जिस आधार पर इसे परखा और जाना जाता है ।
आप जो देखते हैं उस पर विश्वास करते हैं ।
जो आपने नहीं देखा वह अविश्वास की श्रेणी में आता है ।
परंतु सत्य इन दोनों की चरम सीमाओं के बीच होता है ।
सत्य को स्थापित करने के लिए प्रमाण की आवश्यकता होती है ।
परंतु प्रमाणों का ठोस होना प्रश्नवाचक है ।
प्रमाण भौतिक या परिस्थितीजन्य हो सकते हैं या साक्ष्यों पर आधारित हो सकते हैं ।
साक्ष्य स्वरचित या प्रायोजित हो सकते हैं ।
जिनको प्राथमिक रूप से जानने और स्वीकृत करने के लिए विवेकशीलता की आवश्यकता होती है ।और अधिकतम विश्लेषण एवं विवेचना के लिए लिए असीम प्रज्ञा शक्ति आवश्यक है ।
अतः सत्य को जानना एक कठिन कार्य है ।
जो सत्यता जानने की तंत्र द्वारा निर्धारित कार्यप्रणाली के विभिन्न मापदंडों के इर्द-गिर्द घूमता है।
अतः सच को जानने एवं स्थापित करने का सही तरीका यह है कि सत्यता का विश्लेषण उसकी अधिक से अधिक विश्वसनीयता की मात्रा तक किया जाए ।
और उसे भौतिक एवं परिस्थितिजन्य प्रमाणों एवं पूर्वाग्रह एवं दबाव रहित ईमानदार साक्ष्यों की मदद से सुदृढ़ बनाया जाए ।
सत्यता की परख के व्यावहारिक तरीके परंपरागत घिसे पिटे तरीकों के स्थान पर आधुनिक एवं नवीनतम संदर्भ में गहन विश्लेषण पर आधारित होने चाहिए ।
जिससे सत्य को अधिकतम विश्वसनीयता की सीमा तक जानना और परखना संभव हो सके ।