सत्ता काण्ड का प्रारम्भ
सत्ता काण्ड का प्रारम्भ
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वर्तमान से अतीत की ओर चलना
वस्तुतः अतीत से वर्तमान की ओर लौटना है।
सत्ता का गठन संगठन या अराजकता-हनन।
वर्तमान कुछ तो कहे।
पता नहीं वायरस को रँगों की पहचान होती या नहीं।
उनका जन्म सृष्टि का अतीत हो।
वर्तमान तो अराजक आक्रमण है।
खत्म करने की ख्वाहिश अपना अतीत।
वह रँग पहचाने तो रँग बदल दो
रक्त को रंगहीन कर दो।
देह जाने तो विदेह कर दो।
स्पेकट्रम रँगों का नहीं
वायरस का बनायें।
सत्ता का स्पेकट्रम दीखेगा।
विचार आधार रहे हों।
अनाचार आधार रहे हों।
वर्तमान तो अत्याचार है
इसलिए अतीत के पटल अराजक हों।
कर्तव्य और कर्म पशुवत नहीं होते।
मनुष्य होने से
उन्नत होने की अनिवार्यता है।
सत्ता का वर्तमान,युद्ध।
और युद्ध का व्रत सत्ता।
प्रारम्भ सत्ता का व्रत होने की
संभावना तो है।
आसमान यही नहीं रहा होगा।
आसमान में उड़ते खग-झुंड भी।
वर्तमान में अतीत के अवशेष मान्य हैं।
कालखणड सत्ता का मानसिक विकास का
या रहा होगा शारीरिक विकासवाद का
अथवा पाशविक विस्तारवाद का।
अर्वाचीन वर्चस्व की लालसा का प्रारम्भ
प्राचीन मुकुट में गुँथे रत्न की चमक तक
जायगी।
वर्तमान का विशिष्ट विश्लेषण,
पुरातात्विक साक्ष्य की ऐतिहासिकता बता ही देगा।
प्रतीक्षा करते हैं विज्ञान के वृद्धि की।
किन्तु,सत्ता के वर्तमान स्वरूप को अबाध
और अबोध न देना होने।
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