सड़कों पे डूबते कागज़
मेरी जिंदगी पे गुज़रती सड़कें
भिगो के खुदको सुनाती हैं कितनी ही कहानियां।
जिनमें जीती गयीं हैं वो।
हाँ! लेकिन कबाड़ी के खाली डिब्बे सी हँसती हैं मुझ पर
क्योंकि मैं हार जाता हूँ हर बार
आईने में छिपे इक अशक्त गूंगे बैरी से,
जो मेरे विरोध में न जाने कैसे फुसफुसा देता है,
कि मिट्टी से बना मैं और चाहता हूँ कागज़ों को।
सोचता हूँ कागज़ की नाव नहीं भीगने देगी मेरी मिट्टी को
मैं वो नाव चलाता हूँ उन सड़कों के बहते पानी में भी।
लेकिन भीगने के बाद वह बन जाती है फिर कागज़।
आज फिर कोई कह रहा है कि इन सड़कों पे चलने को
क़दमों के साथ चाहिये कदम – हाथों में हाथ भी।
लेकिन मैं सोच रहा हूँ कि क्यों मानूं यह गरीब सच?