सच का दर्पण…. अंतर्मन
जो ज़ुबां बोले
सब वो मानें
किसी के अंतर्मन की
कोई ना जाने ,
तेरे – मेरे सच- झूठ को
कोई नही है जाना
इस अंतर्मन की
कहाँ सुने ज़माना ,
दुनिया तो बस
आडंबर ही पहचानें
अंतर्मन सादगी से
हैं सबके सब अनजाने ,
एक और मन भी होता है
वो गुमनाम सा है रहता
उसे अंतर्मन कहते हैं
सच का दर्पण है सच ही है कहता ,
इस ज़िंदगी की रफ्तार में
उसकी कोई नही सुनता
लेकिन अंतर्मन तो
हर गलती पर है बोलता ,
अभी भी वक्त है
संभल जाओ
अपने अंतर्मन की सुन
वैतरणी तर जाओ ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 22/10/2020 )