सच कहूं, डर तो लगता है!
है मृत्यु निश्चित, यह जानता हूं मैं,
पर,
मर ना जाऊं ऐसे ही, डरता हूं मैं!
डरा रही है यह बिमारी,
कह रहे हैं जिसे महामारी,
पर,
घोषित नहीं कर सकते,
इस डर से कि, देनी पड़ सकती है,
सहायता सरकारी!
आखिर सरकार दे भी तो क्या क्या दे,
खाना, दवा,दारु, या वैक्सीन,
खत्म होती या कम पड़ती आक्सीजन ,
या लोकतंत्र में जीने का जीवन,
मनुष्य को तो यह सब चाहिए,
और सबको एक साथ चाहिए,
थोड़ा सा धैर्य का वह विश्वास कहां से लाएं,
मुझे मिलने से पहले खत्म हो जाए,
तो बताओ फिर कहां जाएं!
कहा गया था सब कुछ , चाक चौबंद है,
जब पाने की कोशिश हुई, तो उपलब्ध ना है,
बस वही हुआ जिसका डर था,
भागम भाग का दौर शुरू हुआ,
इससे कहा, उससे कहा,
ना जाने तब कहां कहां न गया,
पर जो चाहिए वो नहीं मिला,
तिकडमियों से संपर्क किया,
कालाबाजारी का जोर चला,
जाकर मांगा तो मोल तोल हुआ,
जितना मांगा गया उतना टका कम पड़ गया,
जेब जवाब दे गई,
दवा दारु मिलते मिलते रह गई,
हाय रे! क़िस्मत ही दगा दे रही!
क्या करें इतना कभी कमा सका नहीं,
जितना मिला खा- पी लिया, कुछ बचा नहीं,
बुरे वक्त के लिए कभी जुटा नहीं,
अब गिड़गिड़ाने के सिवा क्या करें,
यह सब भी काम आने वाला नहीं !
अब कोई बताए कैसे विश्वास करें,
हालात जब यह बन रहे,
कब यह नौबत मुझ तक आ जाए,
कैसे हम बेखबर रहें,
ऐसे में सच कहूं,
डर तो लगता है,
कहीं मैं भी ऐसे ही ना मर जाऊं,
इन अव्यवस्थाओं के मारे!