सच कहा मैंने
सही को सच कहा मैंने,
गलत को कह दिया गलती।
मिली महबूबा तोहफे में,
जुदाई संग मेरे चलती।
लगाया बीज पीपल का,
मरू धरती को है खलती,
नमीं भी चूस लेती है,
जड़ें कैसे भला हलती।
बुराई हर चौराहे होलिका,
संग राख में जलती।
बनाकर भेष साधू का,
कुटिलता रोज है छलती।
है बगिया तरीफी की तो,
दुर्योधन द्वार पे फलती।
सच्चाई घाट पर खामोश,
अब तो हाथ है मलती।
हमसफ़र हर घड़ी बनकर,
मृत्यु नित्य है टलती।
जिंदगी चार दिन की चाँदनी,
है रोज ये ढलती।
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अशोक शर्मा, कुशीनगर,उ.प्र.