सखे! पर्वतों सम उठ जाना
सखे! पर्वतों सम उठ जाना,
और अपना कद बढा़ते जाना।
देखने को तुम्हें ज्यूँ मेरी,
नजरें भी ऊँची उठने लगे।
सखे! जलधि सम धीर बन जाना,
और सब हिय में समाते जाना।
समझने को तुम्हें ज्यूँ मेरा,
मस्तक भी झुकने लगे।
सखे! द्रुप सम बोझ उठाना,
सद्गुणों के फलों से लद जाना।
ग्रहण करने को कुछ तुमसे जो,
मन मेरा भी मचलने लगे।
सखे! सरित् सम बहते रहना,
कदम नित आगे धरते रहना।
समय की धार भी ज्यूँ तुम्हें,
प्रतिस्पर्धी अपना मानने लगे।
सखे! प्रकृति को आदर्श मानकर,
हर क्षण को बहुमूल्य जानकर।
कर्म अपना यूँ करते रहना,
कि कोटि कदम पीछे चलने लगे।
सोनू हंस