सखि री!
सखि री! (स्वर्णमुखी छंद/सानेट )
सखि री!तुम मीत बनी जब से।
यह मोहक रूप लुभावत है।
मन गीत बना नित गावत है।
सच में तुम हो अपनी तब से।
मन भावन रूपसि सी लगती।
तुझसे यह जीवन धन्य हुआ।
मन मोर मनोरथ पूर्ण हुआ।
मन में बस एक तुम्हीं रहती।
तुम स्नेह सदैव दिखावत है।
रस प्रेम सदा बहता रहता।
अति निर्मल स्वाद मिला करता।
मुखड़ा अति मोह लगावत है।
सखियाँ रहती जग में जितनी।
तुम शीर्ष खड़ी अनुराग धनी।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।