संस्मरण
महामानव
17 जून 2010 को सुबह 3:00 बजे मैं और मेरा परिवार टोहाना के रेलवे स्टेशन पर पहुँच गए| हमने नवयुग एक्सप्रेस में सवार होकर जम्मू के लिए निकलना था| मन में कश्मीर घूमने का रोमांच और कुछ भय के रले-मिले अहसास से ओत-प्रौत थे| भय था अधिक सामान होने का| भय था गाड़ी के एक मिनट के ठहराव के कारण चढ़ न पाने का| ज्यों ही गाड़ी आने को हुई, बेटी लाक्षा के पेट में दर्द शुरू हो गया| ये एक और दुविधा, बिना आमंत्रण आ गई|
इसी बीच ट्रेन आई, हमने तत्परता दिखाई| जल्दी-जल्दी सामान लादा और चल पड़े| ज्यों-ज्यों ट्रेन गति पकड़ती गई, त्यों-त्यों लाक्षा का पेट दर्द बढ़ता गया| लाक्षा पूरे जोर से बिलबिला रही थी| इसका रोना, दर्द से तड़पना, न मुझसे देखा जा रहा था, न अन्य सवारियों से| इस विचलित कर देने वाले हालात में एक बेहद सुखद अनुभूति हुई| किसी के पास पेट दर्द की कोई टेबलेट थी तो उसने टेबलेट उपलब्ध करवाई| किसी के पास चूर्ण (फांकी) थी तो, उसने चूर्ण उपलब्ध करवाया| कोई कुछ नुस्खा जानता था तो उसने नुस्खा सांझा किया| हर व्यक्ति हमारे दुख में दुखी था और संवेदना व्यक्त कर रहा था| इस सबके बावजूद लाक्षा को कोई राहत नहीं मिल पाई|
हमने अगले बड़े स्टेशन पर अपना सैर-सपाटा निरस्त करके, उतरकर इलाज करवाने का मन बनाया| इसी बीच हमारे एक सहयात्री जिनका मैं न नाम जानता न पता ठिकाना जानता| जो दवाइयों का ही कार्य करते थे| उसने अपने किसी परिजन को मोबाईल से कॉल करके बताया कि गाड़ी पहुँचने वाली है, जल्दी फलां दवाई लेकर स्टेशन पर मुझे लेने आ जाना| गाड़ी का ठहराव तीस सैकेंड का है| चलती गाड़ी में ही दवाई पकड़ानी है|
थोड़ी देर बाद वह उठा और कहने लगा ट्रेन धीमी होगी| अमुक स्थान पर दवाई लिए खड़ा है उस से दवाई ले लेना| ट्रेन धीमी हुई, वह उतरा, मैंने उनके बताए अनुसार व्यक्ति से दवाई ली| ट्रेन चल पड़ी| उन सज्जन के बताए अनुसार दवाई दी| जैसा उन्होंने बताया था, दवाई लेते ही लाक्षा सो गई| उसका पेट दर्द ठीक तो हो गया| यात्रा भी लाजवाब रही| वे सज्जन मुझे महामानव लगे| जिन्होंने निस्वार्थ भाव से हमारी मदद की| जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकता|
-विनोद सिल्ला©