Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
13 Jul 2023 · 15 min read

*13 जुलाई 1983 : संपादक की पुत्री से लेखक का विवाह*

13 जुलाई 1983 : संपादक की पुत्री से लेखक का विवाह
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
लेखक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
*मोबाइल 9997615451 _________________________________
तेरह जुलाई सन् तिरासी (कुंडलिया)
“””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””
वर्ष तिरासी शुभ घड़ी ,आई तेरह सात
संपादक जी की सुता ,लेखक की बारात
लेखक की बारात ,खूब फिर हुई लिखाई
मिला चल रहा पत्र ,पत्र में नित्य छपाई
कहते रवि कविराय ,नहीं फिर रही उदासी
उड़े हवा में पंख , बधाई वर्ष तिरासी
“पापा कहते थे कि अगर लड़के ने हाँ कह दी तब कहानी अखबार में छाप दूंगा और अगर कही तो फिर कहानी नहीं छापुँगा । मैंने इस पर उनसे कहा कि भले ही लड़का कहे लेकिन जब कहानी अच्छी है तो तुमको उसे छापना चाहिए ।”-विवाह के काफी दिनों बाद मेरी पत्नी में मुझे यह घटना सुनाई । बात भले ही मजाक में कही गई हो लेकिन थी तो सच्ची ही ।
हुआ यह कि जिस समय हमारा लड़की देखने का कार्यक्रम था ,उन्हीं दिनों मेरी एक कहानी महेंद्र जी के पास सहकारी युग (हिंदी साप्ताहिक) में प्रकाशनार्थ फाइल में विचाराधीन पड़ी थी । उधर कहानी विचाराधीन थी ,इधर रिश्ता विचाराधीन था। मई 1983 में लड़की देखने का कार्यक्रम राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय में रखा गया । पहली बार हमने अपनी श्रीमती जी के दर्शन किए । वार्ता के नाम पर औपचारिकता ही होती थी । उदाहरण के तौर पर यह समझ लीजिए कि हमने पूछा आपका क्या नाम है ? और उन्होंने भी पूछ लिया कि आपका क्या नाम है ? प्रश्न पूछने और उत्तर देने के लहजे में जो चतुराई खोजी जा सकती थी ,वह हम दोनों ने एक दूसरे में खोजी और हाँ कर दी ।
इधर हाँ हुई ,उधर साप्ताहिक के अगले अंक से हमारी कहानी धारावाहिक रूप से छपनी शुरू हो गई । फिर तो कहानी ही क्या, प्रायः सभी अंकों में कुछ न कुछ छपने लगा । हमारी लिखने की आदत बढ़ने लगी तथा ससुर जी ने संभवत यही सोचा होगा कि अब जब इन्होंने हमारी रचना स्वीकृत कर दी है तो हम इनकी रचना को खेद सहित वापस लौटा दें ,यह अच्छी बात नहीं होगी । उसके बाद रिपोर्टिंग के मामले में भी सहकारी युग में हम हाथ आजमाने लगे।
सहकारी युग के पाठकों , लेखकों और समीक्षकों की बड़ी संख्या थी। नामी साहित्यकार इसके साथ जुड़े थे । महेंद्र जी पत्र के संपादक थे और अब हम क्योंकि उनके दामाद थे ,अतः सभी ने इसी भाव से हमारे प्रति अपनत्व की बाहें फैला दीं। सर्व श्री नागार्जुन ,विष्णु प्रभाकर, रमानाथ अवस्थी, निर्भय हाथरसी ,डॉक्टर उर्मिलेश आदि न जाने कितने ख्याति प्राप्त कवि और लेखक ऐसे मिले जिन से प्रशंसा के दो शब्द मिलना भी बड़ी बात होती थी, किंतु हमारे लेखन पर उनकी स्नेह-वर्षा बराबर होती रही । यह सब सौभाग्य एक प्रकार से विवाह का ही प्रसाद कहा जा सकता है।
13 जुलाई को जब हमारा विवाह महेंद्र जी की सुपुत्री मंजुल रानी के साथ संपन्न हुआ तब उस अवसर पर चार पृष्ठ की एक पत्रिका आशीर्वाद के रूप में प्रकाशित की गई थी । इसका प्रथम पृष्ठ शीर्षक को समर्पित था । मध्य के दो प्रष्ठ सुविख्यात कवि डॉक्टर उर्मिलेश के विवाह-गीत अर्थात सेहरे से समृद्ध थे । यह मौलिक गीत विशेष रुप से हमारे विवाह के लिए ही डॉ उर्मिलेश जी ने तैयार करके भेजा था । अंतिम पृष्ठ पर गोरखपुर से कविवर माधव मधुकर की 10 – 12 काव्य पंक्तियां शोभा बढ़ा रही थीं तथा एक पत्र विवाह के अवसर पर शुभकामना का सुविख्यात साहित्यकार श्री विष्णु प्रभाकर का था। कुल मिलाकर “आशीर्वाद” छोटे-मोटे विवाह-अंक का रूप ले चुका था । डॉ उर्मिलेश के गीत का प्रवाह देखते ही बनता था । “जीवन पथ पर आज चले हैं दो राही संसार के “-इस टेक के साथ जो गीत उन्होंने लिख कर भेजा था ,वह उनकी अनुपस्थिति में संभवतः डॉ नागेंद्र ने जयमाला के अवसर पर पढ़कर सुनाया था ।
हमारे ससुर साहब अर्थात सहकारी युग के संपादक श्री महेंद्र प्रसाद गुप्त जी से हमारी पहली आमने-सामने की सीधी मुलाकात 1982 में हुई थी । हम अपनी पुस्तक “ट्रस्टीशिप विचार” छपवाने के लिए उनकी प्रेस पर गए थे । पांडुलिपि महेंद्र जी के हाथ में दी और पूछा ” एक हजार प्रतियां छपवाने में कितना खर्चा आएगा ?” महेंद्र जी ने दो – चार मिनट में पुस्तक के प्रष्ठों को पलट कर सब कुछ अनुमान लगा लिया और दूर तक उड़ान भरने के बाद जो उन्होंने कहा उसका सार यही था कि जितने रुपए में तुम चाहो उतने रुपए में किताब छप जाएगी । हमारे लिए यह एक बहुत अटपटा-सा जवाब था । व्यापार में ऐसे थोड़े ही होता है कि ग्राहक जितने में चाहे ,उसे कोई वस्तु मिल जाएगी ! कितनी लागत आएगी और कितना मुनाफा इसमें लिया जाना है ,इन सब को देख कर वस्तु का मूल्य निर्धारित किया जाता है । लेकिन महेंद्र जी के दिमाग में कुछ और ही चल रहा था । अतः कुल मिलाकर हमारी पुस्तक इतनी कम धनराशि में छप गई जिसका कोई अनुमान भी नहीं लगा सकता था । 25 दिसंबर 1982 को जब पुस्तक का विमोचन राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय में हुआ ,तब महेंद्र जी ने जोरदार भाषण दिया और पुस्तक की तारीफ के पुल बांध दिए । स्पष्ट था कि हम उनके प्रेमपाश में बँध चुके थे । अतः जब अपनी सुपुत्री का फोटो उन्होंने हमारे घर पर भिजवाया और लड़की देखने का औपचारिक कार्यक्रम रखा गया ,उससे पूर्व ही हम महेंद्र जी के प्रशंसक-समूह में अपने को शामिल कर चुके थे।
सहकारी युग साप्ताहिक से जुड़ने का क्रम अगर कुछ और पीछे चला जाए तो संभवतः एक -दो साल पीछे जाकर रुकता है ,जब हमने अखबार के लिए अपना एक व्यंग्य “सैंया भये पत्रकार “शीर्षक से सहकारी युग कार्यालय में डाक से भेजा था । “लेखक : अज्ञात” लिखा था । महेंद्र जी ने रचना ज्यों की त्यों अपने साप्ताहिक पत्र में प्रकाशित की थी । बस लेखक के स्थान पर “लेखिका” लिख दिया था । इस रचना के प्रकाशन से हमें सबसे बड़ा आत्मविश्वास यह स्थापित हुआ कि हम समझ गए कि हमारी कलम में कुछ ऐसा जरूर है जो सहकारी युग साप्ताहिक में प्रकाशन के योग्य समझा गया अर्थात अब लिखने का हमारा रास्ता साफ था ।
विवाह के उपरांत हमारी पुस्तकों के विमोचन की प्रत्येक योजना महेंद्र जी के साथ बैठकर ही बनी। सबसे पहले 1986 में “रामपुर के रत्न” का लोकार्पण विष्णु प्रभाकर जी के कर कमलों से हुआ। रामपुर में बहुत से लोगों को यह उम्मीद नहीं थी कि इतने बड़े साहित्यकार केवल एक पुस्तक के लोकार्पण के लिए दिल्ली से चलकर रामपुर आ जाएंगे। लेकिन महेंद्र जी ने यह असंभव कार्य संभव कर दिखाया । विष्णु प्रभाकर जी ट्रेन से दिल्ली से मुरादाबाद उतरे। वहां पर हम लोगों ने उन्हें रिसीव किया और कार में बिठाकर रामपुर ले आए । मुरादाबाद स्टेशन पर नवगीतकार माहेश्वर तिवारी जी विष्णु प्रभाकर जी की अगवानी के लिए जो पहुंचे तो एक अलग उपलब्धि रही । माहेश्वर तिवारी जी अलग से भी बाद में “माँ” पुस्तक के लोकार्पण के लिए रामपुर पधारे थे । यह कार्यक्रम भी महेंद्र जी के एक फोन से निर्धारित हो गया था । विष्णु प्रभाकर जी महेंद्र जी के निवास पर ठहरे थे । बाद में जब महेंद्र जी ने अपनी आत्मकथा लिखी तब उसमें विष्णु प्रभाकर जी को विमोचन के लिए रामपुर बुलाने के प्रयास को “पुत्री के दहेज” की संज्ञा दी थी । इस तरह यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि मेरा लेखन, पुस्तकों का प्रकाशन और उनका विमोचन विवाह के लंबे दौर के ही हिस्सा रहे। न महेंद्र जी की पुत्री से मेरा विवाह होता और न इतना कुछ लिखने और छपने का अनुकूल वातावरण मिल पाता ।
1990 के आसपास मेरे दो व्यंग्य अमर उजाला में छपे थे । एक पर ₹50 तथा दूसरे पर ₹75 पारिश्रमिक मिला था। लेकिन न तो धनराशि का मुझे कोई आकर्षण था और न ही अमर उजाला के बड़े व्यावसायिक बैनर को मैंने कुछ विशेष महत्व दिया । मैं सहकारी युग साप्ताहिक से संतुष्ट था । जो आत्मीयता इस पत्र में लिखने से प्राप्त हो रही थी ,वह अन्यत्र कहां ?
एक बार एक कहानी संग्रह के विमोचन के लिए डॉक्टर उर्मिलेश ने महेंद्र जी से फोन मिलते ही स्वीकृति दे दी थी । फिर बाद में जब उन्होंने डायरी खोली तो पता चला कि केवल एक स्थान का नहीं अपितु कई स्थानों का एक लंबा चक्र कवि सम्मेलनों की बुकिंग के रूप में उनके पास पहले से तय था । ऐसे में उन्होंने मुझे खेद प्रकट करते हुए एक लंबी चिट्ठी लिखी थी । यह सब एक प्रकार से दामाद – भाव की अभिव्यक्ति ही थी ।
पुस्तकों के विमोचन के क्रम में कारगिल युद्ध के पश्चात “सैनिक” पुस्तक का विमोचन वीर रस के कवि डॉ बृजेंद्र अवस्थी ने बदायूं से रामपुर पधार कर किया था। रामपुर आने के बाद हम उनसे मिलने डॉ नागेंद्र जी के निवास इंदिरा कॉलोनी में गए थे । वह वहीं पर ठहरे थे ।
प्रसिद्ध कवि श्री मोहदत्त साथी ने भी एक पुस्तक का विमोचन रामपुर पधार कर किया था । उस कार्यक्रम में उनके साथ मंच की साझेदारी मोदी जीरोक्स के वरिष्ठ अधिकारी तथा कवि महोदय माथुर साहब ने की थी। इसके मूल आयोजक भी महेंद्र जी थे।
डॉ उर्मिलेश ने बाद में एक कहानी संग्रह का विमोचन किया था ,जो उनकी लोकप्रियता को देखते हुए टैगोर शिशु निकेतन के विशाल मैदान में आयोजित किया गया था । न केवल डॉक्टर उर्मिलेश को महेंद्र जी ने अपने एक टेलीफोन से आमंत्रित कर डाला था अपितु जिला जज, पुलिस अधीक्षक तथा जिलाधिकारी -इस प्रकार जिले के तीनों वरिष्ठतम महानुभावों को भी डॉक्टर उर्मिलेश के साथ मंच की शोभा बढ़ाने के लिए उपस्थित करने में सफलता प्राप्त की थी । उस समय मंच ज्यादा बड़ा नहीं था। ऐसे में डॉक्टर उर्मिलेश ने कार्यक्रम को अपना कार्यक्रम समझा तथा तीनों महानुभावों को भरपूर आदर देते हुए एक कोने में अपने को समेट लिया था। उनकी यह उदारता और आत्मीयता भला कैसे भुलाई जा सकती है ! यह सब महेंद्र जी का ही प्रभाव था ।
महेंद्र जी के साथ पत्रकार सम्मेलन में 1990 के आसपास मुझे रामपुर में अनेक कार्यक्रमों में हिस्सा लेने तथा भाषण देने का भी अवसर मिला । स्थानीय पत्रकारों से मेरा उस समय जो अच्छा संपर्क बना, उसका श्रेय महेंद्र जी को ही जाता है। वह प्रेस क्लब के उस समय कर्ताधर्ता थे । 1988 में “गीता विचार” पुस्तक के प्रकाशन के अवसर पर पुस्तक की व्यापक मीडिया कवरेज हुई । सभी अखबारों ने इसे प्रकाशित किया । विभिन्न समाचार पत्रों के संवाददाता कार्यक्रम में उपस्थित थे तथा संक्षिप्त रूप से एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में मुझसे प्रश्न पूछे गए थे और मेरे द्वारा गीता पर दिए गए उत्तरों को समाचार पत्रों में समाचार के रूप में प्रकाशन की दृष्टि से अच्छा स्थान मिला था ।
आकाशवाणी रामपुर ने 13 जुलाई 1983 को हमारे विवाह के फौरन बाद मेरा और मेरी पत्नी श्रीमती मंजुल रानी का एक इंटरव्यू आकाशवाणी से प्रसारित किया था। इसमें “दहेज-रहित विवाह” की अवधारणा को विशेष रुप से सराहनीय मानते हुए इस प्रवृत्ति का अभिनंदन किया गया था । यह इंटरव्यू पंद्रह अगस्त विशेषांक में प्रकाशित हुआ था।
एक बार प्रसिद्ध कवि कुँअर बेचैन जी ने अपनी एक पुस्तक मुझे भेजी । साथ में एक पत्र लिखा ,जिसका आशय यह था कि अगर पंद्रह अगस्त विशेषांक में इस पुस्तक की समीक्षा आप लिख दो तो बहुत अच्छा रहेगा। मैंने समीक्षा लिख दी । उसके बाद कुँअर बेचैन जी का एक धन्यवाद का पत्र आया ,जिसमें उन्होंने यह बताया था कि मेरी समीक्षा उन्होंने अपने ऊपर पीएचडी करने वाले किसी विद्यार्थी को उपलब्ध करा दी है।
डॉक्टर उर्मिलेश के पिताजी श्री भूप राम शर्मा भूप मेरे लेखन से प्रभावित थे तथा उनकी कई पुस्तकें अच्छी टिप्पणियों के साथ मेरे संग्रह में मौजूद हैं ।
प्रसिद्ध कवि श्री भारत भूषण (मेरठ निवासी) को मैंने अपना एक कहानी संग्रह भेजा था । जब वह रामपुर नुमाइश के कवि सम्मेलन में भाग लेने आए तथा महेंद्र जी के निवास पर मेरी उनसे भेंट हुई तो उन्होंने एक लंबा पत्र मुझे सौंपा था ,जिसमें कहानी संग्रह के दसियों-बीसियों अंशों पर टिप्पणी की गई थी । श्री भारत भूषण सरल एवं आत्मीय भाव रखने वाले सज्जन व्यक्ति थे।
कई दशक महेंद्र जी के साथ बातें करते हुए तथा लिखते – लिखाते और छपते – छपाते कैसे बीत गए ,पता ही नहीं चला। महेंद्र जी निर्लोभी व्यक्ति थे । कलम के धनी थे । न ज्यादा पैसा कमाने में उनकी रुचि थी और न ही अपवित्र साधनों से धनवान बनने की उनकी कोई इच्छा थी । वह जीवन में उच्च विचारों का प्रतिनिधित्व करने वाले एक ऐसे महापुरुष थे ,जिनको अपना ससुर कहते हुए तथा स्वयं को उनका दामाद बताते हुए मुझे अपार प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है । कहते हैं,पति और पत्नी की जोड़ी ईश्वर स्वर्ग में बनाता है । मेरे लिए उसने केवल पति और पत्नी की जोड़ी ही नहीं बनाई , उसने ससुर और दामाद की जोड़ी भी बना दी थी ।
◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
महेंद्र जी का विराट व्यक्तित्व
★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
यद्यपि सहकारी युग के 50 वर्ष से अधिक के प्रकाशन-काल में महेंद्र जी का लेखन हर अंक में सुरक्षित है लेकिन फिर भी अखबार तो अखबार होता है । उसमें जो लिखा होता है ,वह बिखर जाता है और पुस्तक में सारी चीजें सिमटकर एक साथ आ जाती हैं ।
“मेरी पत्रकारिता के साठ वर्ष “184 पृष्ठ की एक ऐसी पुस्तक है ,जिसमें महेंद्र जी के ईमानदारी से भरे हुए ,त्याग और तपस्या से चमकते हुए जीवन का एक ऐसा ब्यौरा है, जो इतिहास में किसी- किसी के हिस्से में आता है । 2016 के मध्य में पुस्तक प्रकाशित होकर आई थी।
महेंद्र जी का जन्म 23 अगस्त 1931 को रामपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ तथा मृत्यु 1 जनवरी 2019 को हुई। इस तरह लगभग 87 वर्ष से अधिक का उनका जीवन उन उदार मूल्यों से प्रेरित रहा जो आज के समाज में न केवल दुर्लभ बल्कि लगभग असंभव ही कहे जा सकते हैं।
1953 में वह हिंदी दैनिक नवभारत टाइम्स के साथ संवाददाता के रूप में जुड़ गए और उसके बाद अंग्रेजी के अनेक समाचार पत्रों का उन्होंने संवाददाता के रूप में प्रतिनिधित्व किया। अंग्रेजी संवाद समिति पीटीआई (प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया) के संवाददाता का उनका दायित्व अंत तक रहा और लगभग 50 वर्ष से अधिक समय तक उन्होंने निरंतरता के साथ इसे निभाया। वह नेशनल हेराल्ड ,टाइम्स ऑफ इंडिया, पायनियर तथा नार्दन इंडिया पत्रिका के संवाददाता रहे । 15 अगस्त 1959 को उन्होंने ऐतिहासिक रूप से रामपुर से सहकारी युग (हिंदी साप्ताहिक ) का प्रकाशन आरंभ किया और कुछ ही समय में इसे भारत के महत्वपूर्ण साहित्यिक और वैचारिक पत्र के रूप में स्थापित कर दिया । वर्ष 54 फरवरी 2013 तक के सहकारी युग के कुछ अंक इन पंक्तियों के लेखक के पास उपलब्ध हैं। छह अथवा चार पृष्ठ का यह हिंदी साप्ताहिक 10 इंच × 15 इंच आकार के खुरदुरे अखबारी कागज पर छपता था । अंतिम वर्षों में छोटे आकार का पत्र भी काफी समय छपा। पत्र ने वैचारिक और साहित्यिक पत्रकारिता के एक नए दौर का आरंभ किया तथा कुछ ही वर्षों में रामपुर के छोटे से शहर से निकलकर इसने एक राष्ट्रीय छवि निर्मित कर ली। पत्रकारिता तथा साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन महेंद्र जी का मिशन था । उनका जीवन इसी ध्येय के लिए समर्पित था। प्रकाशन अच्छे ढंग से होता रहे , इसी को ध्यान में रखते हुए उन्होंने सहकारी युग प्रिंटिंग प्रेस का शुभारंभ 28 अगस्त 1960 को किया और इस तरह लिखना, पढ़ना और छापना महेंद्र जी की आजीविका का साधन भी बनने लगा। प्रिंटिंग प्रेस में उन्होंने न केवल सहकारी युग (हिंदी साप्ताहिक) का प्रकाशन किया बल्कि व्यापार के स्तर पर भी सब प्रकार की छपाइयों के द्वारा अपने परिवार का पालन पोषण किया। व्यापार में उन्होंने ईमानदारी को सर्वोपरि महत्व दिया। प्रिंटिंग प्रेस के झूठे बिल बनवा कर सरकारी दफ्तरों से अधिक पैसे ले लेने का भ्रष्ट आचरण आजादी के बाद आम होने लगा था। महेंद्र जी ने इस मार्ग को स्वीकार नहीं किया ।उन्होंने कमाया कम, लेकिन जितना कमाया उससे उनका खर्च भी चलता रहा तथा स्वाभिमान से उनका सिर भी हमेशा ऊँचा रहा ।
1945 में जब उनकी आयु लगभग 14 वर्ष की रही होगी, वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संपर्क में आए । रामपुर में चंद्रसेन की धर्मशाला में संघ की शाखा लग रही थी। “भारत माता की जय” सुनकर बालक महेंद्र धर्मशाला के अंदर चले गए और उन्हें अपनी भावनाओं के अनुरूप एक संगठन मिल गया। वह उसमें काम करते रहे । फिर जब 1948 में संघ के स्वयंसेवकों को गिरफ्तार करने का कार्य हुआ , तब हँसते-हँसते महेंद्र जी भी जेल गए। जेल में उनके प्रेरणा स्रोत आचार्य बृहस्पति थे, जो बाद में संगीत क्षेत्र में भारत की महान हस्ती बने । इसके अलावा संघ के प्रचारक श्री महेंद्र कुलश्रेष्ठ थे, जिन्होंने बाद में रामपुर से हिंदी के पहले साप्ताहिक “ज्योति” के संपादक का कार्यभार ग्रहण किया था। जेल में महेंद्र जी को कुर्सी बुनने का कार्य सिखाया गया तथा दो कुर्सी रोजाना बुनने का दायित्व उन पर था ।1947 में उन्होंने वृंदावन में संघ के एक माह का प्रशिक्षण, शिविर में प्राप्त किया । इसमें भी उनके गुरु आचार्य कैलाश चंद्र देव बृहस्पति उनके साथ थे ।(प्रष्ठ 19 , 20 , 22 तथा 26 )
पत्रकारिता में महेंद्र जी के व्यापक प्रभामंडल के कारण राजनीतिक दल तथा व्यक्ति उनका लाभ उठाने के लिए उत्सुक रहते थे। किसी भी प्रकार से प्रलोभन देकर उनकी लेखनी को अपने पक्ष में कर लेना उनकी इच्छा रहती थी ।लेकिन महेंद्र जी इस रास्ते से हमेशा अलग रहे । प्रलोभन दिए जाने के अनेक अवसर उनके सामने आए, लेकिन बहुत दृढ़तापूर्वक उन्होंने उन्हें अस्वीकार कर दिया। उन्होंने न तो संवाददाता के तौर पर अखबारों को भेजी जाने वाली रिपोर्ट में अपने हस्ताक्षर बेचे और न ही चिकनी मेजों पर फिसलती हुई नोटों की गड्डी पकड़ने की कला उन्हें आई। ( प्रष्ठ 44 से पृष्ठ 54)
पत्रकारिता के साथ-साथ महेंद्र जी का एक बड़ा योगदान रामपुर में ज्ञान मंदिर पुस्तकालय की गतिविधियों को सेवा भाव से संचालित करना भी रहा है। इसके लिए उनका एक बड़ा योगदान यह रहा कि मिस्टन गंज के चौराहे पर वर्तमान में पुस्तकालय जिस जमीन पर बना हुआ है ,वह जमीन उन्होंने अपने प्रभाव से ज्ञान मंदिर के नाम कराई थी। उस समय रामपुर के जिलाधिकारी श्री शिवराम सिंह थे। उन्होंने महेंद्र जी से कहा कि आवंटन की संस्तुति शासन को भेजने से पहले मैं चाहता हूँ ,यह संपत्ति तुम्हारे नाम अलाट करने के लिए शासन से प्रयास पूर्वक आग्रह करूँ। महेंद्र जी ने उनसे कहा कि ज्ञान मंदिर को यह भवन देकर आप मुझ पर उपकार करें। इस पर कलेक्टर ने समझाया कि लोग तुम्हारी इस त्यागी प्रवृत्ति को आने वाले समय में बिल्कुल भूल जाएँगे । लिहाजा मेरा परामर्श मानकर अपने नाम से आवंटन का प्रार्थना पत्र दे दो । लेकिन महेंद्र जी नहीं माने और उन्होंने वह संपत्ति प्रयत्न पूर्वक ज्ञान मंदिर के नाम ही कराई ।(पृष्ठ 55 तथा 56 )
पत्रकार के नाते महेंद्र जी की अविस्मरणीय मुलाकातें सर्व श्री अटल बिहारी वाजपेई ,चेन्ना रेड्डी,एस.निजलिंगप्पा, देवराज अर्स, नारायण दत्त तिवारी, चंद्रभानु गुप्त तथा बाबू जगजीवन राम आदि के साथ रहीं। उन्होंने शास्त्रीय संगीत गायिका नयना देवी तथा नृत्यांगना उमा शर्मा के साक्षात्कार भी लिए। प्रसिद्ध पार्श्व गायक मुकेश से भी आपने साक्षात्कार लिया ।
साहित्य जगत के शीर्ष स्तंभ सर्वश्री डॉ लक्ष्मीनारायण लाल ,विष्णु प्रभाकर, उमाकांत मालवीय आदि का प्रशंसा – प्रसाद आपको प्रचुर मात्रा में प्राप्त हुआ। प्रसिद्ध क्रांतिकारी मन्मथ नाथ गुप्त से आप की निकटता थी । समाजवादी नेता तथा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मुकुट बिहारी लाल के प्रेरणादायक संस्मरण आपने पुस्तक में लिखें हैं। सहकारी युग (हिंदी साप्ताहिक) के प्रकाशन के लंबे दौर में आपकी निकटता कविवर सर्व श्री गोपाल दास नीरज ,भारत भूषण डा.बृजेंद्र अवस्थी, डॉ उर्मिलेश ,डा.मोहदत्त साथी ,गोपी वल्लभ सहाय आदि अनेकानेक कवि सम्मेलन के मंचों के लोकप्रिय कवियों से हो गई थी।( पृष्ठ 84 )
यह आपके ही व्यक्तित्व का प्रभाव था कि 1986 में आपने इन पंक्तियों के लेखक की पुस्तक ” रामपुर के रत्न” के विमोचन के लिए प्रसिद्ध साहित्यकार श्री विष्णु प्रभाकर को रामपुर आमंत्रित किया और विष्णु प्रभाकर जी दिल्ली से रामपुर केवल “रामपुर के रत्न” पुस्तक का लोकार्पण करने के लिए पधारे। (प्रष्ठ 78-81)
आत्मकथा का एक अध्याय रामपुर के तमाम जिलाधिकारियों के संस्मरण प्रस्तुत करने से संबंधित है । इसमें उन जिलाधिकारियों को जिस रूप में महेंद्र जी ने देखा परखा और उनका आकलन किया , उसका सुंदर रेखाचित्र शब्दों से खींचकर उपस्थित कर दिया है । इससे उच्च प्रशासनिक क्षेत्रों में महेंद्र जी को मिलने वाले महत्व तथा आदर – सम्मान का भी पता चलता है
कुल मिलाकर महेंद्र जी का जीवन सात्विक विचारों की ऊष्मा से संचालित था। कलम उनके लिए जीवन की साधना का प्रतीक बन गई थी ।समाज में जिन कुछ गिने-चुने लोगों को सच्चाई और ईमानदारी जिंदगी की सबसे बड़ी पूँजी नजर आती है, महेंद्र जी ऐसे अपवाद स्वरूप व्यक्तियों में से थे ।
उनकी आत्मकथा पढ़ने योग्य है। महेंद्र जी के अत्यंत प्रिय श्री कमर रजा हैदरी नवोदित ने बहुत आग्रह के साथ महेंद्र जी से आत्मकथा लिखवाने में सफलता प्राप्त की थी। श्री नवोदित से मैंने पाँच हजार रुपए की पुस्तकें खरीदी थी तथा उनमें से कुछ पुस्तकें अक्टूबर 2016 के एक समारोह में तथा कुछ अन्य प्रकार से कुछ लोगों को भेंट की थीं।
—————————————————————–
श्री महेंद्र प्रसाद गुप्त जी (हिंदी गजल/गीतिका)
( जन्म 23 अगस्त 1931— मृत्यु 1 जनवरी 2019 )
■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■
(1)
नमन-नमन सौ बार नमन, वंदन सौ बार महेंद्र जी
सहकारी युग साप्ताहिक, जिनका अखबार महेंद्र जी
(2)
कर्मवीर थे वीरव्रती थे, सत्पथ के अनुगामी
निर्लोभी ईमानदार थे, सच की धार महेंद्र जी
(3)
साहित्यिक-समाज में, संपादक कब उनके जैसा
सात्विक अभिरूचियों के, मानों शुभ विस्तार महेंद्र जी
(4)
बड़े – बड़े साहित्यकार, जिनको प्रणाम करते थे
खुद में एक बड़े, ज्यों साहित्यिक परिवार महेंद्र जी
(5)
खबरें पी.टी.आई .को, वृद्धावस्था तक भेजीं
अंग्रेजी पर भी समान, रखते अधिकार महेंद्र जी
(6)
अगर चाहते तो जमीन को खुद हथिया सकते थे
मिले “ज्ञान मंदिर” को, शुभचिंतक उपहार महेंद्र जी
(7)
धुन सवार थी आदर्शों को, जीवन में जीने की
धन से बढ़कर धनी, लेखनी के भंडार महेंद्र जी
■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■
रचयिता: रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश )
मोबाइल 99976 15451

143 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
Books from Ravi Prakash
View all
You may also like:
3536.💐 *पूर्णिका* 💐
3536.💐 *पूर्णिका* 💐
Dr.Khedu Bharti
मुझे तुम मिल जाओगी इतना विश्वास था
मुझे तुम मिल जाओगी इतना विश्वास था
Keshav kishor Kumar
ग़ज़ल _ खुदगर्जियाँ हावी हुईं ।
ग़ज़ल _ खुदगर्जियाँ हावी हुईं ।
Neelofar Khan
दूर जाना था मुझसे तो करीब लाया क्यों
दूर जाना था मुझसे तो करीब लाया क्यों
कृष्णकांत गुर्जर
स्त्री और पुरुष की चाहतें
स्त्री और पुरुष की चाहतें
पूर्वार्थ
मातृशक्ति
मातृशक्ति
Sanjay ' शून्य'
कैसा होगा मेरा भविष्य मत पूछो यह मुझसे
कैसा होगा मेरा भविष्य मत पूछो यह मुझसे
gurudeenverma198
भारत की गौरवशाली परंपरा का गुणगान लिखो।
भारत की गौरवशाली परंपरा का गुणगान लिखो।
Prabhu Nath Chaturvedi "कश्यप"
हमारे प्यार की सरहद नहीं
हमारे प्यार की सरहद नहीं
Kshma Urmila
आओ इस दशहरा हम अपनी लोभ,मोह, क्रोध,अहंकार,घमंड,बुराई पर विजय
आओ इस दशहरा हम अपनी लोभ,मोह, क्रोध,अहंकार,घमंड,बुराई पर विजय
Ranjeet kumar patre
कुछ बातें ज़रूरी हैं
कुछ बातें ज़रूरी हैं
Mamta Singh Devaa
परछाई (कविता)
परछाई (कविता)
Indu Singh
दुनियां कहे , कहे कहने दो !
दुनियां कहे , कहे कहने दो !
Ramswaroop Dinkar
यह कैसा है धर्म युद्ध है केशव
यह कैसा है धर्म युद्ध है केशव
VINOD CHAUHAN
*जीवन का सार यही जानो, सच्चाई जीवन में घोलो (राधेश्यामी छंद
*जीवन का सार यही जानो, सच्चाई जीवन में घोलो (राधेश्यामी छंद
Ravi Prakash
रमेशराज के प्रेमपरक दोहे
रमेशराज के प्रेमपरक दोहे
कवि रमेशराज
एक नस्ली कुत्ता
एक नस्ली कुत्ता
manorath maharaj
हो हमारी या तुम्हारी चल रही है जिंदगी।
हो हमारी या तुम्हारी चल रही है जिंदगी।
सत्य कुमार प्रेमी
हौसले के बिना उड़ान में क्या
हौसले के बिना उड़ान में क्या
Dr Archana Gupta
इस देश की ख़ातिर मिट जाऊं बस इतनी ..तमन्ना ..है दिल में l
इस देश की ख़ातिर मिट जाऊं बस इतनी ..तमन्ना ..है दिल में l
sushil sarna
तुझको मैंने दिल में छुपा रक्खा है ऐसे ,
तुझको मैंने दिल में छुपा रक्खा है ऐसे ,
Phool gufran
हो अंधेरा गहरा
हो अंधेरा गहरा
हिमांशु Kulshrestha
देखिए प्रेम रह जाता है
देखिए प्रेम रह जाता है
शेखर सिंह
#दोहा-
#दोहा-
*प्रणय*
बांदरो
बांदरो
भवानी सिंह धानका 'भूधर'
कोरोना और पानी
कोरोना और पानी
Suryakant Dwivedi
सपने देखने का हक हैं मुझे,
सपने देखने का हक हैं मुझे,
Manisha Wandhare
जिंदगी जीने के दो ही फ़ेसले हैं
जिंदगी जीने के दो ही फ़ेसले हैं
Aisha mohan
" HYPOTHESIS"
DrLakshman Jha Parimal
"बाणसुर की नगरी"
Dr. Kishan tandon kranti
Loading...