संस्मरण
संस्मरण:
भ्रात नेह
जब याद करती हूँ तो स्मृतियों के भँवर में कुचाले भरने लगती हूँ हालंकि एक अन्तराल बीत जाने के बाद स्मृतियों के द्वार पर जाले लग चुके है लेकिन बचपन भी बड़ा मतवाला होता है इन सब बातों से दूर भाई -बहिन का वो प्यार , तू-तू , मैं -मैं से परे भातृ – वात्सल्य की यादें ताजा होती है तो मन करता है कि उड़ जाऊँ सात समुन्दर पार। समय की गति ने जीवन में बहुत से परिवर्तन ला दिये । प्रवासी भारतीय होने के कारण भाई बहिन की दूरी में बहुत इजाफा हुआ पर यादें जो बचपन में अपने पंख पसार चुकी थी वो किसी दूरी की मोहताज नहीं थी स्मृतियों का मजबूत किला बन चुका था। जब भी कोई पर्व आता था सब लोगों का इकट्ठा होना उन अतीत की स्मृतियों को वापस ले आता जब साथ साथ खाना खाने , घूमने -फिरने
चुहलवाजी करते से भाई – भगिनी रस की प्राप्ति होती थी। यूँ तो तकनीकी माध्यमों ने दूरी को समाप्त कर दिया है लेकिन स्नेह के बादल उमराये बिना नहीं रह सकते । भाई का आना बहुत ही उमंग और उत्साह से भरा होता है एक जीवंत माहौल सा लगता है और प्राणों का संचार होने लगता है हो भी क्यों न।
खून के रिश्ते मन की भावनाओं को बंजर नहीं कर सकते है ।वो दुलार , स्नेह भरा हाथ तो सदैव मेरे ऊपर है पर प्रवासी होने के नाते सारी स्मृतियाँ ताजी हो जाती है । स्नेहजनित कसक ही भाई- बहिन के बीच उस सेतु को बाँधे हुए है जिस पर मात्र नेह सागर उमडऩे को आतुर हो जाता है ।