* संस्मरण : जिम्मेदारी का पहला एहसास *
एक संस्मरण:
** जिम्मेदारी का पहला एहसास **
@दिनेश एल० “जैहिंद”
जिम्मेदारियों की बात चली है तो मैं बता दूँ कि मुझमें जिम्मेदारी कभी रही ही नहीं । शायद इसीलिए मैं अपने जीवन में पछड़ गया वरना आदमी बड़ा काम का था मैं ।
मैं अपनी ज़िन्दगी में मस्तमौला रहा, मुझे परतंत्रता कभी रास नहीं आई । आजाद था आजाद हूँ और आजाद ही दुनिया से कूच कर जाना चाहता हूँ ।
मैं बचपन से ख्वाबों में ही जिता रहा, और उन ख्वाबों के पीछे आधे जीवन तक भागता ही रहा । नतीजन मैं कभी दिल्ली, कभी बम्बई, कभी लखनऊ तो कभी कलकत्ता अपने ख्वाबों की तामीर के लिए भ्रमण करता रहा । अंततः मुझे कुछ नहीं मिला । बस मिली तो एक बेकार की ज़िन्दगी, पुस्तैनी गाँव और पुस्तैनी घर । ये सब मेरे लिए वही है जिनकी कभी मैंने इच्छा नहीं की थी ।
मन में बेचैनी-सी तो बनी रहती है, पर मन को बौद्धिक कुशलता से काबू कर शांत-सा बना रहता हूँ और वर्तमान जिंदगी और कर्म को भगवान का प्रसाद समझ कर ग्रहण किए जा रहा हूँ । और मन को सांत्वना दिए रहता हूँ कि शायद मेरी किस्मत में अर्थात् मेरे हिस्से में बस इतना ही भर था ।
मेरे कई अवगुण हैं, पर इन अवगुणों के साथ मुझमें एक बहुत बड़ा गुण भी है जो इन मेरे अवगुणों पर भारी पड़ता है और आप जानते हैं कि वह क्या है ? वह यह है कि मैं बड़ा ही कर्तव्यपरायण हूँ । मैं जिस काम को हाथ में लेता हूँ, उसे मरते दम तक पूरा करने की कोशिश करता हूँ और बहुत हद तक पूरा कर ही डालता हूँ । और आप समझिए कि यही है मेरी जिम्मेदारी ! और इसी जिम्मेदारी की बदौलत विगत पंद्रह सालों से मैं अपने परिवार का भरण-पोषण किए जा रहा हूँ ।
मेरे विद्यार्थी जीवन की सोच मुझ पर सदा हावी रहती है कि इस धरती पर कुछ भी असम्भव नहीं है, करने पर सब सम्भव है । पर मेरी ना-कामयाबियों ने मेरी सोच और जोश को बदल दिए । जो अपने वश में नहीं है, मैं उसके पीछे नहीं भागता हूँ । ये समझ भी मुझमें परिपक्वता बढ़ने पर आई । हर चीज आदमी के बस में नहीं है । और जो है उसको करने से मैं चूकता नहीं हूँ ।
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दिनेश एल० “जैहिंद”
21. 01. 2018