Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
17 May 2023 · 7 min read

संस्कृति वर्चस्व और प्रतिरोध

“संस्कृति वर्चस्व और प्रतिरोध” किताब के लेखक पुरुषोत्तम अग्रवाल जी ने किताब का नाम इस तरह से चुना है की आपको उसी से अंदाज़ा हो जायेगा कि लेखक पुरे किताब में क्या कहना चाह रहे है। शुरुआत होती है “हम कौन थे, क्या हो गए और क्या होंगे अभी?” से जिससे समाज की परिस्थिति के बारे में पता चलता है। और यह समाज के बारे में लिखा गया है। मैंने जब यह किताब खरीदा था तो पता था की इसको पढ़ने के बाद विचारों में उतार चढ़ाव अवश्य होंगे और यही वजह थी की इतनी छोटी सी किताब पढ़ने में औसतन ज्यादा समय लगा क्योंकि ईमानदारी से कहूँ तो इतने विचारों के भंवर को संभाल पाना आसान नहीं क्योंकि आपको अपने विचारों में खोखलापन साफ़ नजर आने लगता है जैसे जैसे आप इस किताब को पढ़ते जाते है उसी प्रकार आप अपने विचारों की स्थिति के बार में पता लगा पाते है। लेखक के ही शब्दों में यह किताब इतना विचारोत्तेजक है की इसे संभाल पाना मुश्किल है व्यक्तिगत तौर पर नहीं समाज आज जिन परिस्थितियों से गुजर रहा है उसको लेकर यह टिपण्णी की गयी होगी ऐसा लगता है। इसीलिए इस किताब को पढ़ने से पहले आपको अपने अंदर विचारों की एक तरफ़ा शृंखला अगर है तो फिर इस किताब को झेल पाना बहुत मुश्किल होगा। क्योंकि जितना आप आगे बढ़ते जायेंगे यह किताब आपके अपने ही विचारो की बखिया उधेड़ता महसूस होगा और कई बार आपको लगेगा की मैं क्यों इस किताब को पढ़ रहा हूँ और इससे क्या हासिल होने वाला है।
आगे मेरी प्रतिक्रिया से पहले मैं लेखक के बारे में बताना चाहता हूँ की वैसे ही यूट्यूब पर कुछ दर्शनशास्त्र से सम्बंधित वीडियो देखने के सन्दर्भ में इनकी एक वीडियो जो हाल ही में व्याख्यान में दिया गया था सूना जो काफी हद तक मेरे विचारो को सहलाता नजर आया वैसे में तकनिकी विषय का छात्र हूँ लेकिन साहित्य और दर्शन में रूचि होने की वजह कई किताबों और वीडियोस को पढ़ना और देखना शुरू किया जो मेरे बौद्धिक विकास में सहायक हो और तब इनकी एक किताब मंगाई थी जिसके बारे में पहले ही अपना टिपण्णी दे चुका जिसका नाम है “कौन है भारत माता?” और आज यह किताब मुझे किसी और सन्दर्भ में रिफरेन्स के तौर पर मिला तो मुझे लगा की पढ़ना चाहिए अब इस किताब को पढ़ने के बाद लगता है मुझे इनकी दो और किताब है जो पढ़नी चाहिए “तीसरा रुख़” और “विचार का अनंत” शायद इन दो किताबों को पढ़ने के बाद एक अलग विचार से आगे बढ़ पाऊँ। वैसे में विचारों के मामले में रूढ़ीवादी कतई नहीं रहा हूँ लेकिन कुछ लोगों को लगता है मैं पुराने ख्यालातों वाला व्यक्ति हूँ लेकिन सबकी अपनी अपनी समझ होती है मैं किसी भी बात को तथ्य और तर्क की कसौटी पर रखकर देखनी की कोशिश करता हूँ। यही मेरी रूढ़ीवादिता है।

आखिर किताब में ऐसा क्या है जो मैं ऐसा महसूस कर पा रहा हूँ क्योंकि इस किताब की भूमिका में एक समाजसेवी के द्वारा यह सवाल पूछना की “क्या प्रेम का प्रचार प्रसार करना भी उतना आसान है जितना की नफरत का?” किताब की भूमिका में ही लेखक यह कहते है की “समाज को बदलने की कोई भी सार्थक यात्रा खुद से आरम्भ होती है। यह आरम्भ में ही समझ लेना हितकारी होगा की भारतीय समाज की बनावट ही ऐसी है की यहाँ ना धक्कामार ब्राह्मणवाद चल सकता है ना धक्कामार गैर-ब्राह्मणवाद।” मुख्यतः लेखक इस किताब में अलग अलग लेख के माध्यम से समाज से ही सवाल करते है और कोशिश करने का प्रयास करते है की आखिर समाज से कहाँ भूल हो रही है या समाज को किस दिशा की और बढ़ना चाहिए और इन बातों की किस तरह से देखा जा सकता है। इसी क्रम इस इन प्रश्नो पर कुछ सोच विचार हो सके। इन विचारों के माध्यम से लेखक चाहते है की समाज इन प्रश्नो पर गंभीरता से विचार करे और समझे की समाज की दशा और दिशा क्या होनी चाहिए। और इसको तय करने के लिए सिर्फ वे ही जिम्मेदार नहीं है पुरे समाज को मिलकर इसकी जिम्मेदारी उठानी होगी।

किताब में अलग अलग लेख जिसमें मुझे जो पसंद आये वे है “…. और क्या होंगे अभी?”, “प्रामाणिक भारतीयता की खोज”, “इस माहौल में विवेकानंद”, “सीता शम्बूक और हम”, “घुप अँधेरे में छोटी-सी लालटेन”, “खड़े रहो गांधी”, “जातिवादी कौन” आदि। एक समाज के रूप में “हम” का बोध गहरे आत्म-मंथन का विषय है और “हम कौन थे, क्या हो गए, और क्या होंगे अभी” मैथिलि शरण गुप्त की प्रसिद्द पंक्ति के रूप में इस “हम” का आत्म मंथन की व्यंजना करवाती है। और यही लेखक अपनी लकीर खींचने का प्रयास करते है कबीर को आगे रखकर उनके शब्दों में की “यह कड़वी सच्चाई है की ‘हम सब’ के ‘हम’ और ‘सब के बीच बहुत फर्क था, कबीर उसी समाज के अंग थे, जिसकी पीड़ा उनके दोहों में दिखती भी थी, जैसे ‘तू बाम्हन मैं काशी का जुलहा’ और ‘हम तो जात कमीना’ जैसे शब्दों का ताना बाना उसी दर्द का हिस्सा है। अंग्रेजी हमारी बौद्धिक बनावट की भाषा है भावनात्मक बनावट की नहीं, जैसे की आज भी अगर कोई अपनी बात अंग्रेजी में कहता है तो ऐसा लगता है की काफी बड़ा बुद्धिजीवी है और लेखक भी इस बात को समझे बिना नहीं रह पाते है और कहते है की आज भी हमारे यहाँ ऊँचे दर्जे का चिंतन अंग्रेजी में होता है और जनता देशी भाषाओं में काम चलाती है। ठीक उसी प्रकार कई संस्कृत नाटकों में आप संभ्रांत किरदारों को संस्कृत में संवाद बोलते पढ़ते है लेकिन आम जन-मानस की भाषा प्राकृत होती है। हमें ‘हम’ से जरुरत ऐसे भारतीय आत्म-बोध की है जिसमे ‘हम’ की आकांक्षाओं को ही नहीं ‘सब’ की व्यथाओं को भी धारण करने की सामर्थ्य हो।

विचारों का भंवर ऐसा नहीं हो की किसी विचार को सिर्फ उसके इरादे भर से मान लिया जाए, उस विचार की परख उसकी सच्चाई, परम्परा और समाज में सभी लोगो द्वारा उन मूल्यों को बल दिया गया हो। इस प्रसंग में कबीर के प्रति स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के विचार को पढ़ने योग्य बताया गया है। यदि सभी मनुष्य ब्रह्म के ही रूप है और जीवन ही ईश्वर का रूप है तो एक तरफ चींटी को आटा खिलाना और दूसरी तरफ उसी मानव जीवन के दूसरे अंग से दुरी क्यों? जैसे गाँधी कहते है की सत्य और हिंसा का सिद्धांत इतना पुराना होने के बावजूद यह हर काल में सृष्टी के साथ चलता चला आ रहा है। तो सत्य सिर्फ एक आतंरिक खोज का हिस्सा नहीं हो सकता है उसे सामाजिक खोज का हिस्सा भी बनाना पड़ेगा। हमें अपना विवेक किसी भी ऐसे विचार या व्यक्ति के हवाले नहीं करना चाहिए जो सिर्फ यह चाहता है की उनके ही विचार सुने और पढ़े जाय, फिर सत्य और अहिंसा की खोज सामाजिक तौर पर नामुमकिन है। अगर आप विवेकानंद को धार्मिक कहते है उनके कहे कुछ वाक्यों पर ध्यान देने की जरुरत है जैसे “भूखे के सामने भगवान् पेश करना उसका अपमान है।”, “धर्म का सामाजिक नियमों से क्या प्रयोजन?”, “धर्म को कोई हक़ नहीं की वह समाज के नियम गढ़े।” आदि। लेकिन आप विवेकानंद को राजनैतिक भी नहीं बोल सकते है क्योंकि उनका राजनीती से दूर दूर का कोई वास्ता नहीं था तो ऐसे वक्तव्यों से वे क्या कहना चाहते थे। वे हम सबको आत्म अवलोकन करने ही कह रहे थे की जिस जंजाल से आप और आपका समाज आगे नहीं बढ़ पा रहा है उससे आपको छुटकारा पाने की आवश्यकता है।

समाज में स्त्री की पवित्रता ऐसी चीज है जिसे जांचने का और परखने का हक़ सिर्फ सामाजिक सत्ता को है। उस सत्ता को जो स्त्री को देवी कहकर पुकारता तो है लेकिन समय मिलने पर उसकी अग्नि परीक्षा लेने से भी नहीं चुकता है। स्त्री को ही अपने शरीर, मन और व्यक्तित्व पर अधिकार नहीं है। ऐसा लगता है परम्परा से सत्ता आयी वो भी पुरुष प्रधान तंत्र के हिस्से लेकिन मर्यादा की जिम्मेवारी सिर्फ स्त्री के हिस्से। प्रगतिशील उदारपंथी बुद्धिजीवी किसी भी समस्या को स्वाभाव से मुद्दों पर रेखांकित करने का काम नहीं कर पाते है वे केवल प्रतिक्रिया देकर अपनी इतिश्री कर लेते है। आजकल हर ऐसी बातो को राष्ट्रीय गौरव, समाज की इज्जत आदि से पुकारकर या बोलकर इसे एक रूप में रंगने का प्रयास लगातार होता रहता है। परिभाषाओं पर एकाधिकार रखने वाली सत्ता की निगाह में अभी भी चाहे वो स्त्री हो या कामगार समाज उसकी हैसियत क्या है किसी से छुपी नहीं है। गाँधी का रामराज्य का मतलब था समाज के आखिरी पायदान पर खड़े व्यक्ति के आँख के आंसू पोछे जाय। और इसी को जादू की पुड़िया कहकर बाबू जगजीवन राम को भी यही समझाने का प्रयास किये थे। राजनीती तो ऐसे सवालों पर हमेशा चुप्पी साधकर अपनी मौन स्वीकृति तो दिखा ही देता है और उसकी मज़बूरी भी है। कभी कभी लगता है स्त्री का व्यक्तित्व अर्जन की समस्या किसी सभ्यता परम्परा के उदार और सहिष्णु होने अथवा न होने भर की समस्या हो।

ऐसी ही कई समस्याओं पर ध्यान आकृष्ट करना मुझे लगता है पुरुषोत्तम अग्रवाल जी का प्रयास सफल माना जाना चाहिए और मैं उनको धन्यवाद देना चाहता हूँ ऐसी विचारोत्तेजक किताब हम जैसे पाठकों के बीच लाने के लिए।

धन्यवाद
©✍️ शशि धर कुमार

621 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
Books from Shashi Dhar Kumar
View all
You may also like:
चलती  है  जिन्दगी  क्या ,  सांस , आवाज़  दोनों ,
चलती है जिन्दगी क्या , सांस , आवाज़ दोनों ,
Neelofar Khan
Learn the difference.
Learn the difference.
पूर्वार्थ
खत्म हुआ है दिन का  फेरा
खत्म हुआ है दिन का फेरा
Dr Archana Gupta
* सड़ जी नेता हुए *
* सड़ जी नेता हुए *
Mukta Rashmi
सुनील गावस्कर
सुनील गावस्कर
Dr. Pradeep Kumar Sharma
3603.💐 *पूर्णिका* 💐
3603.💐 *पूर्णिका* 💐
Dr.Khedu Bharti
मां की ममता को भी अखबार समझते हैं वो,
मां की ममता को भी अखबार समझते हैं वो,
Phool gufran
आप कभी 15% मनुवादी सोच को समझ ही नहीं पाए
आप कभी 15% मनुवादी सोच को समझ ही नहीं पाए
शेखर सिंह
गणेश वंदना छंद
गणेश वंदना छंद
Dr Mukesh 'Aseemit'
ॐ
सोलंकी प्रशांत (An Explorer Of Life)
Pain of separation
Pain of separation
Bidyadhar Mantry
வாழ்க்கை நாடகம்
வாழ்க்கை நாடகம்
Shyam Sundar Subramanian
ज़िंदगी देख
ज़िंदगी देख
Dr fauzia Naseem shad
ओ मैना चली जा चली जा
ओ मैना चली जा चली जा
ऐ./सी.राकेश देवडे़ बिरसावादी
बाल कविता : बादल
बाल कविता : बादल
Rajesh Kumar Arjun
"आज मैं काम पे नई आएगी। खाने-पीने का ही नई झाड़ू-पोंछे, बर्तन
*प्रणय*
हर ज़िल्लत को सहकर हम..!
हर ज़िल्लत को सहकर हम..!
पंकज परिंदा
मै पा लेता तुझे जो मेरी किस्मत करब ना होती|
मै पा लेता तुझे जो मेरी किस्मत करब ना होती|
Nitesh Chauhan
दरअसल बिहार की तमाम ट्रेनें पलायन एक्सप्रेस हैं। यह ट्रेनों
दरअसल बिहार की तमाम ट्रेनें पलायन एक्सप्रेस हैं। यह ट्रेनों
ब्रजनंदन कुमार 'विमल'
"मानुष असुर बन आ गया"
Saransh Singh 'Priyam'
आजा रे अपने देश को
आजा रे अपने देश को
gurudeenverma198
गम के पीछे ही खुशी है ये खुशी कहने लगी।
गम के पीछे ही खुशी है ये खुशी कहने लगी।
सत्य कुमार प्रेमी
*** मैं प्यासा हूँ ***
*** मैं प्यासा हूँ ***
Chunnu Lal Gupta
यादों की किताब
यादों की किताब
Smita Kumari
"ग से गमला"
Dr. Kishan tandon kranti
जीवन की आपाधापी में देखता हूॅं ,
जीवन की आपाधापी में देखता हूॅं ,
Ajit Kumar "Karn"
एक डरा हुआ शिक्षक एक रीढ़विहीन विद्यार्थी तैयार करता है, जो
एक डरा हुआ शिक्षक एक रीढ़विहीन विद्यार्थी तैयार करता है, जो
Ranjeet kumar patre
मप्र लेखक संघ टीकमगढ़ की 313वीं कवि गोष्ठी रिपोर्ट
मप्र लेखक संघ टीकमगढ़ की 313वीं कवि गोष्ठी रिपोर्ट
राजीव नामदेव 'राना लिधौरी'
*पुस्तक समीक्षा*
*पुस्तक समीक्षा*
Ravi Prakash
दोहा
दोहा
डाॅ. बिपिन पाण्डेय
Loading...