संस्कृति के रक्षक
संस्कृति के रक्षक
“देखो, ये पैसे की धौंस कहीं और दिखाना। साफ-साफ बताओ…किस कलमुंही के पास गए थे मुंह..? इतने पैसे और ये नई ड्रेस …? कहां से मिले तुम्हें ?”
“देखो, विश्वास करो मुझ पर। मैंने कोई भी गलत काम नहीं किया है। कई और लोग भी गए थे मेरे साथ। तुम उनसे पूछ …”
“विश्वास…? तुम सारे मर्द जात…? कौन हैं ये कलमुंही भारती… संस्कृति…और ये करमजली पद्मावती, जो मर्दों पर यूं ही पैसे-कपड़े लुटा रही हैं ? बोलो ? जवाब क्यों नहीं देते ?”
“धीरे बोल भागवान, धीरे बोल। कल फिर से जाऊंगा। तुझे भी साथ में ले जाऊंगा। दोनों के डबल पैसे मिलेंगे।”
“छी: छी: नासपीटे। शरम नहीं आती तुझे। अपनी बीबी से धंधा कराएगा तू। देखती हूं तुझे कैसे ले जाता है मुझे।”
“चुप…, चुप साली। सुनती-समझती है नहीं। कुछ भी बोले जा रही है।”
“और भी कुछ सुनाना बाकी है क्या ?”
“देखो रानी, तीन दिन से कोई काम-धाम तो मिल नहीं रहा था। चावड़ी में आज एक नेता टाइप आदमी आया और सारे मजदूरों को 300/- रुपए रोजी और लंच पैकेट के नाम पर एक हवेली में ले गया। वहां पांच मिनट की ट्रेनिंग में हमें नारा लगाना सिखाया गया। मर्दों को ये टी-शर्ट-लोवर और औरतों को साड़ी दी गई। कल सबको फिर से बुलाया गया है। अपने मित्रों और रिश्तेदारों को भी बुलाने के लिए कहा गया है। वहीं पर ये सब भारती… संस्कृति… और वो क्या पद्मावती का नाम ले-लेकर चिल्लाते हैं। हम तो बस झंडा पकड़ के हाथ उठा-उठा कर मुर्दाबाद, जिंदाबाद कहते हुए उनके पीछे पूरे शहर में घूमते रहे। दोपहर को लंच पैकेट और शाम को ये 300/- रुपए नगद। हमें क्या मतलब संस्कृति या पद्मावती से।”
“ओह ! तो ये बात है। मैं तो कुछ और ही…”
“क्या कुछ और …?”
“मैं सोच रही थी कि अपने मम्मी पापा और भाई को भी बुला लेती, तो दो पैसे वे भी कमा लेते। आप भी अपने छोटे भाई को बुला लो न कुछ दिनों के लिए। दिनभर पूरे गांव में घूमते रहता है आवारा की तरह।”
“ठीक है मैं उन्हें फोन कर देता हूं। रात को ही आ जाएं, तो कल से काम शुरू हो जाएगा। वैसे भी ये तो अभी चुनाव तक चलेगा।”
अब वह मोबाइल पर नंबर खोजने लगा।
-डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़