संस्कृति का उपहास
***संस्कृति का उपहास***
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भारतीय संस्कृति का उपहास
औरत जाति का काल विनाश।
फैशन नामक नव अंगप्रदर्शन,
निडरता कहें या है दुस्साहस।
मार्गदर्शन होगा या पथभ्रष्टता,
संस्कार नहीं कतई आसपास।
अमीरी में गरीबी का है मजाक,
फटेहाल युवा पीढ़ी पर्दाफाश।
किस दिशा की ओर हैं अग्रसर,
तनिक भी नहीं है उन्हें आभास।
गर देनी भावी पीढ़ी को सीख,
हो उनका सामाजिक कारावास।
वस्त्र के बाहर झलकते हैं अंग,
देख शर्मसार भी नीला आकाश।
चिंताजनक है यह औछी स्थिति,
समझ पाए बात को कोई काश।
मनसीरत पूर्वजों की यह सीख,
शायद यह संस्कृति का विकास।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)