संस्कार
भ्रष्टाचार का शाब्दिक अर्थ है भ्रष्ट आचरण ।
स्वस्थ आचरण अंतर्निहित संस्कारों से परिलक्षित होता है ।
संस्कारों की शुद्धता स्वस्थ विचारों के पोषण से निर्मित होती है । इसे बाल्यकाल से ही पालक अपने बच्चों में निहित करने का प्रयास करते हैं । बच्चों का मन एक कच्ची मिट्टी की तरह होता है । जिसे किसी भी तरह ढाला जा सकता है । बच्चों में नई नई बातों को ग्रहण करने की अपरिमित जिज्ञासा होती है । और वे नई-नई बातों को शीघ्र ही ग्रहण कर लेते हैं ।जिसमें वे जैसा आचरण देखते हैं वैसा ही आचरण करने लगते हैं । जब बड़ों का आचरण संस्कार युक्त होता है । तो उसकी देखा देखी में अपना आचरण भी उसी तरह बनाने का प्रयत्न करते हैं । अतः यह आवश्यक है बड़े अपना आचरण पहले सुधारें । जिससे कि बच्चे उनका अनुसरण कर अपना आचरण उनकी तरह बनाने बनाने का प्रयत्न करें । जाने अनजाने में में हम इस बात से अनभिज्ञ रहते हैं कि हमारे व्यवहार का प्रभाव बच्चे के मस्तिष्क पर क्या पड़ रहा है । जो दूरगामी होकर संस्कार का रूप ले सकता है । अतः हम यह कह सकते हैं युवा पीढ़ी में संस्कार विहीनता उनके बचपन में उनके पालकों द्वारा उनके समक्ष किए व्यवहारों की देन है । जिसके फलस्वरूप उन में भटकाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है ।और वे भीड़ की मनोवृत्ति के शिकार हो जाते हैं ।और उनमें विवेकशील निर्णय लेने की कमी हो जाती है । सही गलत की पहचान और स्वयं का निर्णय न लेने की स्थिति में वे दूसरों की देखा देखी कर भ्रष्ट आचरण में लिप्त हो जाते हैं । और उसके परिणाम से अनभिज्ञ रहते हैं । विषम परिस्थितियों में अपना मानसिक संतुलन कायम रखकर समस्याओं से जूझने का साहस भी उनमें नहीं रहता। और वे तनाव और अवसाद तक की स्थिति में आ जाते हैं । अतः भ्रष्टाचार को जड़ से मिटाने के लिए हमें बचपन से ही बच्चों में संस्कार लाने की आवश्यकता है ।
इसके लिए सर्वप्रथम हमें अपने आचरण में शुद्धता लानी होगी । जिससे आने वाली पीढ़ी इसे ग्रहण कर अपने अंतर्निहित संस्कारों का परिमार्जन कर सके ।