संस्कार
क्या कहूँ जब पापा और ,माँ झगड़ रहे थे ,
बिजली कड़क रही थी ,बादल गरज रहे थे.
इधर से दनादन थप्पड़ ,टूटी थी चारपाई ,
उधर से भी चौकी और,बेलन बरस रहे थे.
जमने की थी बस देरी , औकात की लडाई,
बेचारे पूर्वजों के ,पुर्जे उखड रहे थे.
अरमान पडोसियो की , मुद्दत से पड़ी थी सुनी ,
वारिस अब हो रही थी ,वो भींग सब रहे थे.
मिलता जो हमको मौका ,लगाते हम भी चौका ,
बैटिंग तो हो रही थी , हम दौड़ बस रहे थे.
इन बहादुरों के बच्चे , आखिर हम सीखते क्या ,
दो चार हाथ को बस , हम भी तरस रहे थे.