संस्कार
संस्कार
जो प्रतिध्वनि से घबराते, प्रतिविम्ब देख डर जाते हैं
खुश होते निजी भुलावे में, बहकावे के पद गाते हैं।
उनके हित में कभी कोई, कानून खड़ा न होता है
जो कुछ कहने में अपनों से, सिर झुका बहुत शर्माते हैं।
भाव हृदय में दफन किये, जो पिये विरहविष का प्याला
उनके जैसा इस जगती में है, और कोई न मतवाला
मूढ़ बावरा समझ के छलिया, गलियों में भरमाते हैं।
कभी हार न मानी जिसने, रगड़ घिसट के मंजिल पाया
स्वाभिमान न खोया रोया, मुश्किल क्षण में धैर्य कमाया
ऐसे जीवन रण के योद्धा, कभी मात न खाते हैं।
हृदय का हर विम्ब प्रमादी, अहंकार में है उन्मादी
प्रगति प्रयोग नवयोग विसारे, पाठ पढ़ाये छायावादी
हाय! मनोविश्लेषणवादी, क्यों इतना तरसाते हैं।
प्रथम द्रष्टया जिस रंगिणि ने, बरबस महक लुटाया था
बेमाझी मझधार फँसी, तरणी को पार लगाया था
करुण तरुण वे अग्निपुष्प, क्यों हृदय नहीं समाते हैं?
बात बात में जिसने मीठी, आवाजों में टोका था
नैतिकता से च्युत चाहतों, को पग-पग पे रोका था
उसके भौतिक मिलन मोह क्यों, अन्तस्तल सुलगाते हैं?