संस्कारों को भूल रहे हैं
आडम्बर की होड़ लगी है
संस्कारों को भूल रहे हैं
गैरों की गलबहियां होकर
मात-पिता को भूल रहे हैं
संस्कारों को भूल रहे हैं
मानवता का फ़र्ज़ निभाते
औरों को नित राह दिखाते
खुद का रस्ता भूल रहे हैं
संस्कारों को भूल रहे हैं
मां तड़पे फर्ज नहीं दिखता
पिता भटके फर्क नहीं पड़ता
बस मस्ती में झूम रहे हैं
संस्कारों को भूल रहे हैं
रिश्ते नाते तोड़ के रहना
अपनों से मुंह मोड़ के रहना
कैसे सब कुछ भूल रहे हैं
संस्कारों को भूल रहे हैं
ये दिन तुझमें भी आएंगे
खिले फूल भी मुरझाएंगे
‘विनोद’जो ऐसे फूल रहे हैं
संस्कारों को भूल रहे हैं