संस्कारों की घुट्टी
बचपन से ही,
पिलाई गयी थी घुट्टी,
संस्कारों के नाम की,
एक अच्छी लड़की ,
विकसित हो सके मुझमें,
भले ही खुद को भूल जाऊँ मैं,
मेरी रक्त वाहिनियों में
दौड़ते संस्कार रक्त के साथ साथ।
आँखों में शर्म,त्याग की तत्परता,
और गांधीजी का सिद्धांत,
कोई एक गाल में मारे तो,
दूसरा आगे कर दो,
धमनियों में बहाया गया,
शुद्ध रक्त कहकर।
नजरों की बेबाकी,
अधिकारों की लड़ाई,
सही को सही कहने की हिम्मत,
दिल में उठता विद्रोह और ज्वार,
शिराओं में दौड़ाकर,
फिर से भेज दिया जाता था,
संस्कारी हृदय के पास शुद्ध होने,
समाज के मानकों पर
खरा उतरने के चक्कर में,
कब जीना छूट गया,
याद ही कहाँ है?
वर्षा श्रीवास्तव”अनीद्या”