संसर्ग मुझमें
कागज है दो पन्नों की सार
पर मिलता इसमें इतिहास नहीं
न ही रामायण के तेरह कांड
न ही महाभारत महाकाव्य
यह गजल कविता कहानी नहीं
अपितु है ये किसका सारा सार
देखता हूँ थोड़ा तिरछी शब्दों से
ये है राष्ट्र – धार – राह – हार संसार
देखा मैंने गरीबी की शय्या पर ही
मिलता है सुख – शांति – समृद्धि ही
वसुदेव कुटुम्बकम् है आर्यावर्त में
पर अब कहाँ गई ये सब संस्कार संसर्ग!
पंक्ति कहाँ अब नहीं सीधी लाइन में
संघर्ष है पर यहाँ मुकाम नहीं
लोग – लोग हाय – हाय कर रहा
क्या है ये ज़मीनी धन जंजाल!
चक्रव्यूह है इस जीवन के युद्ध में
सौंदर्य, समागम दूर्दिन का हाहाकार
कपट-छल, हत्या, हुस्न-महफ़िल मिलता
पर मिलता कहाँ यहाँ कागज के सार!
#VarunSinghGautam