संशोधन
कर नित नए संशोधन,
पथिक तू, आगे बढ़ता चल।
भूलों को कर, हर्ष से स्वीकार,
अपनी जड़ताओं पर, कर नित प्रहार।
बनकर निर्मल जल की धार,
पथिक तू आगे बढ़ता चल।
गिरि-सा तू बनकर विशाल,
धरा-सा धैर्य तू धारण कर।
सूरज-सी तेज हो प्रतिभा तेरी,
हो चांद-सी शीतलता अपार।
बनकर निश्छल गंगा की धार,
पथिक तू आगे बढ़ता चल।
न रख शिकवा, रंजिश मन में,
न तू रह बंद, बीते पल में।
खोल कर सकल द्वार मन के,
आंगन में किरणों को आने दे,
चेतन मन को जग जाने दे।
बनकर अविरल पीयूष की धार,
पथिक तू आगे बढ़ता चल।
विफलताओं में है रहस्य नया,
हर पल निखरता व्यक्तित्व तेरा।
जो गिरकर भी उठ पाता है ,
वह नया पृष्ठ बन जाता है।
बहा तू अपने भावों की धार,
पथिक तू आगे बढ़ता चल।
– ज्योति✍️