***संशय***
***संशय***
नदियों के सागर में
सागर फिर महासागर में
जीवन की सच्चाई मे
सच्चाई फिर महासमर में
हर बार परीक्षा देती है क्यों
नारी की शुचिता में
वो मानव भी मानव क्या है
जो आरोप स्वयं लगाता है
क्या अपनी ही पवित्रता को
वह साबित कर सकता है
जिसका वसुत्व जिंदा है
वह तो जिंदा रहता है
कुकर्मी पापी व्यक्ति ही
आरोप उसी पे मड़ता है ।
सद्कवि — प्रेमदास वसु सुरेखा