संवेदना
मूक है सब प्रार्थनाएं
व्याकुल हुयी बेचैनियां !
गड़ रहे हैं कैक्टस
चुभती नजर खामोशियां !!
मौनता के गर्भ क्यों
सह रहे हम यंत्रणाए !
सादगी के आवरण
ना तोड़ पाये वर्जनाएं !!
सूखती ही जा रही
रिश्तो की वंशबेलिया !
अनकहा ही रह गया ,
रत्नाकर की गहराइयां !
हीर सी महकी हुई ,
अपनत्व की परछाइयां !!
समय भी बांच रहा
दुर्घर्ष की पहेलियां !!
अर्थ के ही सुर्ख पंख
चरित्र के ही मानदंड
नापता अपना समय ही
स्वप्न बिखरे खंड-खंड !!
हांफती घायल हुई सी
संवेदन रिक्त हथेलियां !!
जिंदगी के ख्वाब सब ,
शून्य तिरोहित हो गए
प्रश्न करते आठों पहर ,
आत्म मंथन हृदय व्यथित हो गए!!
फिर सलीबों पर है येशू
कैसे करें अठखेलियां!!
नमिता गुप्ता ✍️
लखनऊ