संवेदना
जग धरती पर ऐसा भी है होता
वेदना उतर कर पॉव पसारती
संवेदना व्यक्ति की नग्न हो जाती
देख विकलता मन है मर जाता
दया ,ममता ,करूणा कहाँ है जाती
मानव खण्ड विकसित ना हो पाता
विकसने से पहिले आत्मा मर जाती
देख विकलता नहीं शान्त बैठ पाता
दुनियाँ से खत्म मनुजता को देख
मन क्यों तेरा नही बरबस रो जाता
सूट बूट में चलता फिरता तू इतराता
इनका भी भला इन्सान तू करता
विधाता ने नीचे डाल ना सोचा होगा
मेरी दोनों कृतियों मे वैषम्य न होगा
पैसे वाला न पैसे वालें को सम्हालेगा
मेरा तो कुछ बोझ भार ही उतारेगा
डॉ मधु त्रिवेदी