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21 Apr 2024 · 1 min read

संवेदना

वेदना के गर्भ में पलती रही संवेदना।
अक्सर बिना सिर-पैर के चलती रही संवेदना ।।

बस्तियाँ तो रात भर, जलती रहीं अपनी मगर।
मोम के संग रात भर, गलती रही संवेदना ।।

वो जिन्हें हमने चुना था, अपने आँसू पोंछने को।
हाथ उनके द्वार पर, मलती रही संवेदना ।।

चाँद काग़ज़ पर बना कर, चूमना तक़दीर थी।
आँसुओं के रूप में ढलती रही संवेदना ।।

शीश पर सूरज को लेकर हम चले जिनके लिए।
मन में वो तस्वीर ले, छलती रही संवेदना ।।

विजय “बेशर्म”

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