संवेदना की आस
संवेदना की आस पर, जी रहे हैं सब यहां
एक दूजे के प्रेम से जीवन का यथार्थ यहां।।
वसुन्धरा का उपकार बढा, भार जो सबका सहा..
मुझमें हो जो संवेदना,धरती मां का संरक्षण करूं।।
वृक्षों ने हमें फल दिये,शीतल छाया की शरण मिली
प्राण वायु जो दे रहे,वृक्षों के उपकार बढे.. संवेदना मुझ में जगा..
क्यों प्राण उनके संकट में पड़े, कंक्रीट के महल खड़े किये.. कहां गयी संवेदना प्राण अपने भी दाव पर लगे..
जल ही जीवन तो कहा.. पर उस जल पर ही संकट पड़ा..
स्वार्थ की धुंध में सब कुछ थुमिल हुआ..
आंधियों की उठापटक, सब कुछ तितर-बितर हुआ
अपना ही सब समेट रहे.. रो रहा कोई दूजी और खड़ा..
पेट किन्हीं के फट रहे, कोई भूख से तड़फ रहा।
कहाँ गयी संवेदना कोई देखो तो जरा..
ऊंच-नीच के भेद में अंहकार का तांडव बड़ा..
कराह रही मानवता.. संवेदना तू जाग जरा..
आस में तेरी यहाँ, मानवता को जगा, त्याग, दया प्रेम भाव की संवेदना की मशाल को तुझमें जगा।।