संवेदनहीन संतान
आज फेसबुक पर कुछ ऐसा देखा,
क्षुब्ध हृदय उद्विग्न हो चीखा ।
अनायास ही पलटने लगी –
मैं अपने कर्मों का लेखा-जोखा ।
यक्ष प्रश्न हृदय में कौंधा –
क्या मानवता लुप्त हो रही ?
स्वार्थ के समक्ष अस्तित्व खो रही ?
जिन माता-पिता ने सर्वस्व ,
सन्तान पर न्योछावर कर दिया।
नश्वर जगत में दिखाने को वर्चस्व,
सन्तान ने उन्हें एकाकी छोड़ दिया ?
निर्जन मकान में शयन- शैय्या ,
कब बन गई ” माँ” की मृत्यु-शैय्या ?
जिस तन से कष्ट सहकर जाया ,
वह कब कंकाल बना, जान न पाया ?
धिक्कार है! ऐसी संतान पर ,
जीवन-लिप्सा की ऐसी सोच पर।
आख़िर कोई इतना संवेदनहीन
भला, कैसे हो सकता ?
भविष्य की चकाचौंध में विलीन
इतनी उपेक्षा कैसे कर सकता ?