*संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ/ दैनिक रिपोर्ट*
संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ/ दैनिक समीक्षा
दिनांक 19 अप्रैल 2023 बुधवार प्रातः 10:00 से 11:00 तक (रविवार अवकाश रहता है)
आज अयोध्याकांड में दोहा संख्या 2 से दोहा संख्या 50 तक का पाठ हुआ।
कैकेई ने दो वरदान मांगे
पाठ में रवि प्रकाश के साथ सर्व श्री पंकज गर्ग, राजकुमार शोरी, श्रीमती शशि गुप्ता तथा श्रीमती मंजुल रानी का विशेष सहयोग रहा।
आज के कथा-क्रम में महाराज दशरथ ने अयोध्या का राज्य भगवान राम को सौंपने का निश्चय किया। संपूर्ण अयोध्या में हर्ष छा गया। किंतु भाग्य के विपरीत होने के कारण कैकई की बुद्धि को मंथरा दासी ने पलट दिया और उसने महाराज दशरथ से दो वरदान के रूप में प्रथम तो भरत को राज्य और द्वितीय राम को वनवास मॉंगा।
रामचरितमानस के अयोध्या कांड के द्वितीय दोहे में ही यह स्पष्ट हो जाता है कि राम के राज्याभिषेक के विषय को महाराज दशरथ ने सर्वप्रथम गुरु वशिष्ठ को जाकर सुनाया :-
प्रेम पुलकि तन मुदित मन, गुरहि सुनायउ जाइ।।
गुरुदेव वशिष्ठ को सबसे पहले अपने विचार से अवगत कराने के पीछे जहां एक ओर राज्य सत्ता में विद्वानों को पर्याप्त आदर देने की भावना की विद्यमानता का पता चलता है, वहीं दूसरी ओर दशरथ के राजनीतिक चातुर्य का भी परिचय मिलता है। गुरुदेव वशिष्ठ सब प्रकार से राज्य सत्ता के संचालन की बारीकियों को समझते थे। अतः किसी और से यह विचार साझा करने से पहले महाराज दशरथ ने गुरुदेव वशिष्ठ की सहमति लेना अधिक उचित समझा ताकि अगर उनकी सहमति है तो बात को आगे बढ़ाया जाए। जहां तक गुरु का सम्मान करने का प्रश्न है, महाराज दशरथ के मन में यह सम्मान-भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। उन्होंने मुनि वशिष्ट से कहा:-
जे गुरु चरण रेनु सिर धरहीं। ते जनु सकल विभव बस करहीं।। (दोहा संख्या दो)
अर्थात जो लोग गुरु के चरणों की रज को अपने मस्तक पर धारण करते हैं, वह मनुष्य सब प्रकार के वैभव को प्राप्त करते हैं। महाराज दशरथ ने भले ही गुरुदेव वशिष्ठ की सम्मति जानना चाही हो, लेकिन सच तो यह है कि गुरुदेव वशिष्ठ राम के राज्याभिषेक के लिए राजा दशरथ से भी दो कदम आगे उत्सुक थे। उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि :-
बेगि विलंब न करिअ नृप, साजिअ सबुइ समाज । सुदिन सुमंगल तबहिं जब रामु होहिं युवराज (दोहा संख्या चार)
अर्थात शुभ दिन और शुभ मंगल उसी दिन होगा और उसी समय होगा, जब राम युवराज बन जाएंगे अर्थात कोई मुहूर्त निकालने की आवश्यकता नहीं है। इस कार्य में बिना विलंब किए आगे बढ़ जाना चाहिए।
तदुपरांत राजा दशरथ ने लोकतांत्रिक पद्धति का आश्रय लेते हुए अपना अभिमत बजाय इसके कि पूरे राज्य पर थोप दिया जाए, एक सभा बुलाई और उस सभा में उन्होंने सबके सामने अपना अभिमत रखा:-
जौं पांचहि मत लागै नीका। करहु हरषि हिय रामहि टीका ।। (दोहा संख्या 4)
अर्थात आप लोग पंच हैं, जो आपको उचित लगे तो राम का अभिषेक कर दिया जाए ? उपरोक्त पद्धति में गहरी लोकतांत्रिक आस्था का प्रतिबिंब मिलता है। दशरथ सर्वशक्ति संपन्न राजा थे लेकिन उनका राजतंत्र सबकी राय स्वीकार करते हुए तथा सबकी राय मांग कर राजकाज को आगे बढ़ाने पर आधारित था। यहां मनमानी को अवकाश नहीं था। अगर अपनी मनमानी ही करनी होती तो उसमें किसी की राय लेने की प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती । जबकि दशरथ अपने विचार को सबके सामने अभिमत प्रस्तुत करने के लिए रख रहे हैं और सब की सहमति प्राप्त करने के बाद ही उन्होंने राम के राज्याभिषेक की दिशा में कदम आगे बढ़ाए।
राम के राज्याभिषेक के प्रस्ताव को मुनिराज वशिष्ठ की सहमति प्राप्त होने के बाद तथा संपूर्ण सभासदों की सहमति भी जब प्राप्त हो गई, तब मुनिराज वशिष्ठ ने अगला आदेश इस प्रकार दिया :-
आनहु सकल सुतीरथ पानी (दोहा संख्या 5)
अर्थात मुनिराज ने हर्ष पूर्वक कहा कि सारे अच्छे तीर्थों का जल लेकर आया जाए। अब यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि सारे तीर्थों का जल लेकर आने का कार्य आसान नहीं था। इसमें समय लगता है। दूर-दूर तीर्थ होते थे और वहां से जल लाने का कार्य समय साध्य था। इससे पता चलता है कि राम का राज्याभिषेक शीघ्रता से तो हुआ लेकिन उसमें कोई जल्दबाजी नहीं थी । अन्यथा तीर्थों से जल मंगाने वाली समय-साध्य प्रक्रिया को अपनाया नहीं जाता।
तुलसीदास जी शकुन और अपशकुन को रामचरितमानस में बड़ा महत्व देते हैं । राम के राज्याभिषेक के निर्णय के पश्चात वह लिखते हैं :-
राम सीय तन शगुन जनाए। फरकहिं मंगल अंग सुहाए।। (दोहा संख्या 6)
अर्थात राम और सीता के मंगलमय अंग फड़कने लगे। यहां तुलसीदास जी ने क्योंकि राम और सीता दोनों के संबंध में अच्छे शगुन की बात कही है, इसलिए उन्होंने केवल मंगल अंग का प्रयोग किया है । इसका तात्पर्य यह है कि रामचंद्र जी का दाहिना अंग तथा सीता जी का बॉंया अंग शुभ शगुन के अनुरूप फड़कने लगा होगा। लेकिन दोनों यही समझ रहे हैं कि यह जो सुंदर शगुन के समाचार को सुनाने वाले मंगल सूचक अंग फड़क रहे हैं ,वह भरत जी के आगमन के सूचक हैं अर्थात भरत जी आने वाले हैं।
अयोध्या में गुरु वशिष्ठ को कितना अधिक आदर दिया जाता था, इसका पता इस बात से भी चलता है कि राम को युवराज पद देने के निर्णय की सूचना मुनि वशिष्ट के द्वारा महाराज दशरथ ने भिजवाई। उन्होंने स्वयं राम को यह सूचना देना उचित नहीं समझा होगा। कारण यह है कि राजकार्य के कुछ नियम और प्रक्रियाएं होती हैं। उनका समुचित पालन ही उचित होता है।
यहां आकर हृदय सुखद आश्चर्य से भर जाता है। मुनि वशिष्ठ रामचंद्र जी को उनके राज्याभिषेक की सूचना देते हैं। अगर कोई साधारण व्यक्ति होता तो इस सूचना को सुनकर खुशी से झूम उठता और पागल-सा हो जाता। लेकिन वाह रे मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ! आपने तो मानो सुख और दुख में एक समान रहने के धर्म के निर्वहन की शिक्षा देने का दायित्व ही अपने ऊपर लिया हुआ हो। समाचार सुनकर भी आपको यही खेद हुआ कि केवल मुझे ही यह राज्याभिषेक का अवसर क्यों दिया जा रहा है ? वह कहते हैं :-
जनमे एक संग सब भाई। भोजन शयन केलि लरिकाई।। करणवेध उपवीत बियाहा। संग संग सब भए उछाहा।। विमल वंश यह अनुचित एकू। बंधु बिहाई बड़ेहि अभिषेकू।। (दोहा संख्या 9)
यह केवल राम ही हैं जो अपने राज्याभिषेक को सुनकर भी प्रसन्न नहीं हो रहे हैं बल्कि उल्टे यही कह रहे हैं कि हम चारों भाइयों का एक साथ खेलकूद कर पालन-पोषण हुआ, एक साथ हमारा कर्ण छेदन, यज्ञोपवीत और विवाह आदि उत्सव हुए। यह बड़ी अनुचित बात है कि केवल एक सबसे बड़े पुत्र का ही राज्याभिषेक क्यों हो रहा है ? यह मौलिक प्रश्न है जो किसी ऐसे व्यक्ति के मन में ही उठ सकता है जिसे राज्य का लोभ नहीं हो अर्थात राम चाहते थे कि राज्य चारों भाइयों में बराबर रूप से बांटा जाए । तुलसीदास जी रामचंद्र जी की इस सहज निष्कपटता को देखकर टिप्पणी इस प्रकार करते हैं :-
प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई। हरउ भगत मन कै कुटिलाई।। (दोहा संख्या 9)
उपरोक्त पंक्तियों की हनुमान प्रसाद पोद्दार ने टीका इस प्रकार की है :- “तुलसीदास जी कहते हैं कि प्रभु श्री रामचंद्र जी का यह सुंदर प्रेम पूर्ण पछतावा भक्तों के मन की कुटिलता को हरण करे।”
तात्पर्य यह है कि हम सब प्रभु राम की सुंदर यश कथा में निहित निष्कपट और निर्लोंभी चरित्र को सुनकर और पढ़कर उनके समान ही निष्कपट भाव को अपने भीतर भरने का प्रयास करें । इसी में रामचरितमानस के पाठ की सार्थकता है।
सरस्वती जी ने राम के इसी हर्ष और विषाद से परे स्वभाव को इंगित करते हुए देवताओं से कहा:-
बिसमय हर्ष रहित रघुराई। (दोहा संख्या 11)
अर्थात भगवान राम हर्ष और विषाद से परे हैं। भगवान राम राज्य की इच्छा नहीं करते थे । उनके मन में राज्य का कोई लोभ नहीं था। लेकिन दूसरी तरफ केकई की दासी मंथरा केवल राज्य के लोभ की सीमित सोच में ही पड़ी हुई थी । उसके लिए अयोध्या का राज्य पद ही विचार की अंतिम सीमा थी । अतः उसने अपनी मालकिन अर्थात कैकई के शुभ को समझते हुए कैकेई के पुत्र भरत को अयोध्या का राजा बनाने के लिए कुचक्र चलना शुरू कर दिया। कैकई प्रारंभ में तो उसकी बातों में नहीं आई और उसने उसे घरफोड़ी तक कह डाला:-
पुनि अस कबहु कहसि घरफोड़ी। तब धरि जीभ कढ़ावउॅं तोरी (दोहा संख्या 13)
अर्थात कैकई ने मंथरा से कहा कि तू घरफोड़ी अर्थात घर फोड़ने वाला काम करने वाली है । अब अगर उल्टी सिखाई तो तेरी जीभ निकाल दूंगी।
कैकई के हृदय में तब तक कोई पाप नहीं आया था, जब तक मंथरा ने उसकी बुद्धि नहीं फेरी ।उसने यही कहा :-
प्राण ते अधिक रामू प्रिय मोरें (दोहा 14)
एक बार तो बात सधने लगी थी। मंथरा को भी लगा कि अब कैकई की बुद्धि को फेरा नहीं जा सकता। अतः उसने हार मानते हुए यही कहा
कोई नृप होउ हमहिं का हानी (दोहा 15)
अर्थात कोई भी राजा बन जाए, अब हमें क्या नफा और क्या नुकसान ?
लेकिन धीरे-धीरे मंथरा ने कैकई की बुद्धि फेरना शुरू कर दिया । यह जो बुद्धि है, उसके फिरने में कोई देर नहीं लगती। तुलसीदास लिखते हैं :-
तसि मति फिरी कहइ जस भाबी (दोहा संख्या 16)
अर्थात जैसी होनहार अथवा भाग्य विधाता ने लिख दिया है, उसी के अनुसार मनुष्य की बुद्धि भी फिर जाती है अर्थात जैसा भाग्य में लिखा होता है वैसी ही बुद्धि भी बन जाती है ।
तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में मंथरा को अवध की साढ़ेसाती का विशेषण प्रदान किया है । लिखते हैं :-
अवध साढ़साती तब बोली (दोहा संख्या 16)
साढ़ेसाती एक कहावत है जो शनि की कुपित अवस्था को दर्शाती है।
मंथरा ने एक तर्क पूर्वक बात भी कैकई के सामने रखी थी। उसने कहा था :-
(दोहा संख्या 18) राम के राज्याभिषेक के निर्णय को तो एक पखवाड़ा बीत गया है और तुम्हें आज केवल मेरे द्वारा यह खबर पता चल रही है । यह भी एक ऐसा तर्क था जो निश्चित रूप से कहीं न कहीं बुद्धि में बैठ गया।
तरह-तरह से जब मंथरा ने कैकई को समझाते-बुझाते हुए अपने वश में कर लिया, तब कैकई को भी अपशगुन रूपी अपने दाहिने अंग के फड़कने की कई दिन से चल रही बात याद आ गई। तुलसीदास जी स्त्री के दाहिने अंग के फड़कने को अपशगुन मानते हुए स्थान-स्थान पर उसका परिचय देते हैं । कैकई मंथरा से कहती है :-
सुनु मंथरा बात फुरि तोरी। दाहिनी आंखि नित फरकइ मोरी।। दोहा संख्या 19
अर्थात मंथरा! बात तो तेरी सही है क्योंकि मेरी दाहिनी आंख रोजाना फड़कती रहती है।
बस फिर क्या था। कैकई की बुद्धि पलट गई ।उसने अपना मन बना लिया कि राम को वनवास और भरत को राजपद, यह दो वरदान राजा दशरथ से मांगना हैं। अयोध्या के लिए अत्यंत दुखदाई होने वाली इस स्थिति को तुलसीदास जी ने इस चौपाई के माध्यम से बिल्कुल सटीक चित्रित किया है:-
दोहा वर्ग संख्या 22 अर्थात विपत्ति बीज है, वर्षा ऋतु दासी है, जमीन कैकई की कुमति हो गई है और कपट रूपी जल उस पर पड़ने के बाद दो वरदान रूपी अंकुर जो फूटा है उसका परिणाम रूपी फल अत्यंत दुखद होगा।
जैसा मंथरा ने समझाया था, कैकई ने ठीक वैसा ही किया। वह कोप भवन में चली गई। जमीन पर जा पड़ी। पुराना मोटा कपड़ा पहन लिया। तुलसी लिखते हैं :-
भूमि शयन पटु मोट पुराना (दोहा संख्या 24)
कैकई ने अपने दो वरदान राजा को स्मरण कराए। राजा ने कहा कि जो चाहे इन दो वरदानों के रूप में मांग सकती हो:-
रघुकुल रीति सदा चली आई, प्राण जाए पर वचन न जाई (दोहा संख्या 27)
रघुकुल की रीति सदा से यही चली आ रही है कि भले ही प्राण चले जाएं लेकिन दिए हुए वचन से पीछे नहीं हटते हैं । और तब कैकई ने सर्वाधिक दुख देने वाले दो वरदान राजा दशरथ से इन शब्दों में मांगे :-
देहु एक वर भरतहि टीका। तापस वेश विशेष उदासी। चौदह बरस राम वनवासी।। दोहा संख्या 28
इन दोनों वरदानों को सुनकर राजा ने माथे पर हाथ रख लिया और उनके दोनों नेत्र बंद हो गए।
तुलसी लिखते हैं:-
माथे हाथ मूदि दोउ लोचन
जब कैकई यह कहती है कि क्या भरत तुम्हारे पुत्र नहीं हैं?, तो दशरथ देर किए बगैर इस बात को सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं कि वह भरत को अविलंब राजपद देने के लिए तैयार हैं। वह यह भी कहते हैं कि मैं तो केवल यह सोचकर ही कि राम मेरे सबसे बड़े पुत्र हैं तथा परिपाटी सबसे बड़े पुत्र को ही युवराज बनाने की रहती है, अतः मैं केवल इसी नाते राम का राज्याभिषेक कर रहा था:-
मैं बड़ छोट विचारि जियॅं, करत रहेऊॅं नृपनीति (दोहा संख्या 31)
राजा दशरथ ने केकई से यह भी कहा कि भरत भूलकर भी राजपद नहीं चाहेंगे। यह तो बस कुमति ही तेरे हृदय में प्रवेश कर गई है । तुलसीदास जी के शब्दों में :-
चहत न भरत भूपतहि भोरें। विधि बस कुमति बसी जिय तोरें।। (दोहा संख्या 35)
कैकई तो लोभ में डूबी हुई थी । लेकिन जब रामचंद्र जी कैकई के पास आए और कैकई ने उन्हें अपने दो वरदानों की बात बताई, तब रामचंद्र जी राजपद छिनने और वन गमन की स्थिति को जानकर भी सहज आनंद में ही निमग्न रहे। तुलसी लिखते हैं:-
रामु सहज आनंद निधानू (दोहा 40)
वह इस अवसर पर केकई से कहते हैं :-
सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु वचन अनुरागी।। तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा।।
अर्थात रामचंद्र जी कहते हैं कि अपने माता और पिता के वचनों का पालन करने वाला संसार में बड़ा भाग्यशाली होता है। जो माता-पिता को संतुष्ट कर दे, ऐसा पुत्र सारे संसार में अत्यंत दुर्लभ है। रामचंद्र जी वन गमन को भी सकारात्मक भाव से ग्रहण करते हैं । तुलसी लिखते हैं :-
मुनिगन मिलनु विशेषि बन, सबहि भांति हित मोर। (दोहा संख्या 41)
अर्थात मुनि गणों से मिलना होगा, सब भॉंति इससे मेरा हित ही होगा। इस प्रकार राम की दुख और सुख से परे जीवन जीने की अद्भुत शैली का दर्शन हमें कैकेई के कोपभवन में देखने को मिलता है । इस संसार में भला रामचंद्र जी के अतिरिक्त और कौन व्यक्ति होगा जो अपने राज पद को छिनता हुआ देखकर दुखी न हो जाए तथा अपने वन गमन की बात सुनकर जिसके हृदय में वेदना उत्पन्न नहीं हो। यह तो केवल रामचंद्र जी के व्यक्तित्व की ही दुर्लभता कहीं जा सकती है। भगवान राम केवल इसी बात के लिए दुख करते हैं कि मेरे 14 वर्ष के लिए वनवास जाने की जरा-सी बात के लिए पिताजी को दुख क्यों हो रहा है ? तुलसीदास जी ने लिखा है :-
थोड़िही बात पितहि दुख भारी दोहा 41
थोड़ी-सी बात कह कर तुलसी ने राम के हृदय की विशालता को मानों सागर के समान दर्शा दिया है । भला ऐसा भी कोई व्यक्ति हो सकता है, जो 14 वर्षों के लिए बनवास की बात को छोटी-सी बात कहकर हवा में उड़ा देने का कार्य कर सके। यह सब तो केवल रामचंद्र जी के व्यक्तित्व के योग्य ही आचरण है। जहां एक ओर दशरथ जी यह चाहते थे कि राम उनके वचनों का निरादर करते हुए वन न जाएं, वहीं दूसरी ओर भगवान राम ने पुनः अपने पिता दशरथ जी से यही कहा :-
अति लघु बात लागि दुखु पावा दोहा संख्या 44
अर्थात हे पिताजी! मेरे वन जाने की अत्यंत छोटी सी बात के लिए आपने इतना बड़ा दुख क्यों पाया?
राम ने एक पुत्र के सद्गुणों की भी इन शब्दों में व्याख्या की उन्होंने दशरथ जी से कहा :-
धन्य जनमु जगतीतल तासू। पितहि प्रमोद चरित सुनि जासु।। चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्राण सम जाकें।। (दोहा संख्या 45)
हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने इसकी टीका इस प्रकार लिखी है: “इस धरती पर उसका जन्म धन्य है जिसका चरित्र सुनकर पिता को परमानंद हो। जिसको माता-पिता प्राणों के समान प्रिय हैं; धर्म अर्थ काम और मोक्ष उसके करतल अर्थात मुट्ठी में रहते हैं।
राम उपरोक्त सुपुत्र की परिभाषा पर पूरी तरह खरे उतरते हैं । उन्हें कोई निजी स्वार्थ नहीं है। वह व्यक्तिगत प्रसन्नता और दुख से परे हैं। ऐसा व्यक्ति देहधारी परमात्मा नहीं तो भला और कौन हो सकता है ?
समूची अयोध्या राम के वन गमन के समाचार को सुनकर दुखी हो रही है। जितनी स्त्रियां थीं, सिवाय मंथरा के सब ने कैकई को एक ही बात समझाई (दोहा संख्या 49) :-
नाहिन रामू राज के भूखे। धर्म धुरीन विषय रस रूखे।। गुरु गृह बसहुॅं राम तजि गेहू। नृप सन अब बर दूसर लेहू।।
अर्थात राम राजपद के भूखे नहीं हैं ।धर्म को धारण करने वाले विषयों के रस से रूखे हैं। यह न समझो कि वह वन नहीं गए तो भरत के राज्य में बाधा डालेंगे। फिर भी अगर ऐसा समझती हो तो यह वर ले लो कि राम घर छोड़कर गुरु के घर में रहें।
हनुमान प्रसाद पोद्दार जी की टीका से तुलसीदास जी की चौपाइयों का अर्थ अत्यंत सरल और सटीक रूप से हमें उपलब्ध हो रहा है। उनका जितना धन्यवाद किया जाए, कम है ।
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लेखक : रवि प्रकाश (प्रबंधक)
राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय (टैगोर स्कूल), पीपल टोला, निकट मिस्टन गंज, रामपुर, उत्तर प्रदेश
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