*संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ*/ *दैनिक रिपोर्ट*
संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ/ दैनिक समीक्षा
12 अप्रैल 2023 बुधवार समय 10:00 से 11:00 तक
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आज बालकांड दोहा संख्या 179 से 208 तक का पाठ हुआ। मुख्य पाठ में रवि प्रकाश के साथ स्वतंत्रता सेनानी एवं रामपुर की रामलीला के संस्थापक स्वर्गीय देवी दयाल गर्ग के पौत्र पंकज गर्ग ने सहभागिता की।
राम का जन्म, यज्ञ की रक्षा के लिए विश्वामित्र राम-लक्ष्मण को ले गए
आज का रामचरितमानस का पाठ अद्भुत रहा, क्योंकि आज राम का धरती पर दिव्य रूप में अवतार हुआ। परमात्मा का धरती पर मनुष्य रूप धारण करके अवतरित होना एक अद्भुत घटना है । तुलसी में जो लयबद्ध रचना राम के जन्म को चित्रित करने के लिए लिखी, उसकी लयात्मकता देखते ही बनती है। मानों प्रत्येक पंक्ति ही नहीं, प्रत्येक शब्द के साथ संगीत फूट रहा है। देखिए, कितना सुंदर छंद है:-
भए प्रगट कृपाला दीनदयाला,कौसल्या हितकारी ।हरषित महतारी, मुनि मन हारी,अद्भुत रूप बिचारी ॥ लोचन अभिरामा, तनु घनस्यामा,निज आयुध भुजचारी । भूषन बनमाला, नयन बिसाला,सोभासिंधु खरारी ॥ (दोहा छंद संख्या 191)
हनुमान प्रसाद पोद्दार ने अपनी टीका में खरारी का अर्थ खर नामक राक्षस को मारने वाले भगवान राम कहकर किया है। तुलसी के चित्रण में भगवान का प्रकटीकरण चार भुजाओं के साथ हुआ है तथा चारों भुजाओं में अस्त्र-शस्त्र सुशोभित थे। शरीर सॉंवला था। कौशल्या उस रूप को देख कर हर्ष से भर उठीं।
लेकिन भगवान को अपने विराट रूप में प्रकट करके तो कोई चमत्कारी कार्य नहीं करना था। उन्हें तो एक साधारण मनुष्य की तरह कौशल्या की गोद में खेल कर तथा दशरथ के आंगन में विचरण करते हुए बड़ा होकर स्वाभाविक रीति से मनुष्य के पुरुषार्थ को सिद्ध करना था । अतः भगवान ने कौशल्या को वैसी ही बुद्धि दी और कौशल्या ने स्वयं भगवान से प्रार्थना की कि वह शिशु रूप में प्रकट होकर अपनी बाल लीलाएं करें । तुलसी के शब्दों में :-
माता पुनि बोली सो मति डोली। तजहु तात यह रूपा। कीजै शिशु लीला अति प्रियशीला। यह सुख परम अनूपा।। सुनि वचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा (दोहा छंद 191)
तुलसी ने राम के जन्म का कारण भी एक बार फिर से उल्लिखित कर दिया। तुलसी लिखते हैं :-
विप्र धेनु सुर संत हित, लीन्हिं मनुज अवतार (दोहा संख्या 192)
अर्थात भगवान धरती पर सज्जनों की रक्षा करने के लिए जन्म लेते हैं। इसका अभिप्राय बुरे लोगों और बुरी प्रवृत्तियां को नष्ट करना होता है। एक स्थान पर तुलसी ने राक्षसों की परिभाषा बताई है । वह लिखते हैं :-
बाढ़े खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन परदारा ।।
मानहिं मातु-पिता नहिं देवा। साधुहिं सन करवावहिं सेवा।। (सोरठा संख्या 183)
उपरोक्त वर्ग में आने वाले सभी व्यक्तियों को तुलसी के अनुसार राक्षस मानना चाहिए। अर्थात दुष्ट, चोर, जुआरी, दूसरों के धन और दूसरों की स्त्री पर बुरी निगाह डालने वाले तथा वे लोग जो माता और पिता को देवता नहीं मानते तथा साधुओं की सेवा करने के स्थान पर उनसे सेवा करवाते हैं, वह सब निसिचर अर्थात राक्षस ही माने जाएंगे। राक्षस की यह व्याख्या देखा जाए तो सभी देश काल समाज पर लागू होती है । अच्छे कार्य करने वाले देवता तथा बुरे कार्य करने वाले राक्षस -उपरोक्त परिभाषा से माने जाने चाहिए। संसार में इस प्रकार राक्षसों का पूरी तरह लोप नहीं होता । वे आज भी अलग-अलग पदों पर तथा अलग-अलग रूपों में समाज में चारों ओर फैले हुए दिख जाएंगे । उनके प्रभाव को कम करना तथा उनकी शक्ति को नष्ट करना ही एक प्रकार से राम-जन्म से प्रेरणा लेकर व्यक्ति के पुरुषार्थ को जागृत करने का कार्य कहा जाएगा। तुलसी ने निशाचर की परिभाषा जो सर्वकालिक दी है, वह सराहना के योग्य है।
तुलसी ने ईश्वर के इस स्वरूप को भी स्वीकार नहीं किया कि वह केवल बैकुंठ में निवास करते हैं अथवा उनका निवास क्षीरसागर में है । तुलसी ने कहा कि ईश्वर सर्वत्र समान रूप से व्याप्त है । वह प्रेम के वशीभूत ठीक वैसे ही प्रकट हो जाता है, जैसे नहीं दिखाई देने वाली अग्नि साधन करने से प्रकट हो जाती है। तुलसी ने जोर देकर कहा कि कोई देशकाल दिशा जिसमे परमात्मा उपस्थित न हो, हो ही नहीं सकती । अगर कोई है, तो बता कर दिखाओ ? यह परमात्मा के निराकार, सर्वव्यापी स्वरूप में तुलसी के गहरे विश्वास को प्रतिपादित करने वाली काव्य पंक्तियां हैं। इनका उल्लेख तुलसी ने उस समय किया है, जब सारे देवता रावण के अत्याचारों से दुखी होकर भगवान से अवतार लेने की प्रार्थना कर रहे थे और उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि ईश्वर के पास कहां-कैसे जाया जाए ? तुलसी भगवान शंकर के शब्दों को उद्धृत करते हुए लिखते हैं :-
हरि व्यापक सर्वत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना।। अग जग मय सब रहित विरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी।। (दोहा वर्ग संख्या 184)
परमात्मा तुलसी के अनुसार सर्वव्यापक, निर्गुण, निराकार और अजन्मे होते हैं। लेकिन प्रेम के वशीभूत होकर वह भक्त कौशल्या की गोद में खेल रहे हैं । इस दृश्य को चित्रित करने के लिए तुलसी ने लिखा है:-
व्यापक ब्रह्म निरंजन, निर्गुण विगत विनोद।
सो अज प्रेम भगति बस, कौशल्या के गोद।। (दोहा संख्या 198)
कौशल्या की गोद में खेलने वाले भगवान राम की कुछ विशेषताओं को भी तुलसी ने महसूस किया । उन्होंने देखा कि भगवान के पैरों की तली में कुलिस अर्थात वज्र, ध्वजा और अंकुश के चिन्ह सुशोभित हो रहे हैं । कमर में किंकिनी अर्थात करधनी के साथ-साथ पेट पर तीन रेखाएं भी हैं । नाभि की गंभीरता भी अद्भुत है। कंठ अंबु अर्थात शंख के समान है। ठोड़ी सुंदर है । बाल चिक्कन अर्थात चिकने, कुंचित अर्थात घुंघराले हैं । तुलसी के शब्दों में :-
रेख कुलिस ध्वज अंकुश सोहे।
कटि किंकिनी उदर त्रय रेखा।
नाभि गभीर जान जेहिं देखा।
कंबु कंठ अति चिबुक सुहाई। चिक्कन कच कुंचित गभुआरे (दोहा वर्ग संख्या 198)
बालकांड में ही भगवान राम ने अपनी माता कौशल्या को अपने विराट स्वरूप का दर्शन भी पालन-पोषण के मध्य में ही एक बार कराया । यह वैसा ही विराट रूप दर्शन था, जो गीता में अर्जुन ने श्रीकृष्ण का किया था ।
पढ़ते-पढ़ते एक स्थान पर चौपाई की पंक्ति इस प्रकार आई:-
चूड़ाकरन कीन्ह गुरु जाई (दोहा वर्ग संख्या 202)
हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने इसका अर्थ लिखा “तब गुरुजी ने जाकर चूड़ाकर्म संस्कार किया”
अब समस्या यह आई कि चूड़ाकरण अर्थात चूड़ाकर्म संस्कार -यह शब्द आजकल प्रचलन में नहीं है। अतः इसका अर्थ क्या हुआ ? खोज करने पर पता चला कि यह मुंडन संस्कार का ही दूसरा नाम है। जन्म के समय शिशु के सिर पर के बालों को हटाकर साफ-सफाई करना ही चूड़ाकरण अर्थात चूड़ाकर्म संस्कार है। समय के साथ कुछ नामों में परिवर्तन अस्वाभाविक नहीं है।
भगवान राम बचपन से ही प्रातः काल उठते थे। प्रातः काल उठना ही अपने आप में एक सात्विक जीवन पद्धति को दर्शाता है । केवल उठते ही नहीं थे, वह उठकर माता-पिता और गुरु का सम्मान भी करते थे। इसलिए तुलसी लिखते हैं :-
प्रातकाल उठ के रघुनाथा। मात पिता गुरु नावहिं माथा (दोहा वर्ग संख्या 204)
जब भगवान राम बड़े हुए तब वह गुरुकुल में पढ़ने के लिए गए थे और सारी विद्या सीख ली। तुलसी यहां पर भी आश्चर्य प्रकट करना नहीं भूलते कि चारों वेद जिनकी सांसों में बसा हुआ है, वह पढ़ने के लिए जाते हैं, यह कोई कम अचरज की बात नहीं है। अर्थात जब परमात्मा सगुण साकार रूप में धरती पर अवतार लेते हैं, तब वह सामान्य मनुष्य के समान जीवन बिताते हैं। और वह सारे कार्य करते हैं जो साधारण शरीर धारी मनुष्य करता है।
कथा के तारतम्य में विश्वामित्र अपने यज्ञ की रक्षा के लिए भगवान राम और लक्ष्मण को साथ में ले जाते हैं तुलसी लिखते हैं :-
श्याम गौर सुंदर दो भाई, विश्वामित्र महानिधि पाई (दोहा वर्ग संख्या 208)
रास्ते में ही भगवान राम ताड़का राक्षसी का वध कर देते हैं। तदुपरांत विश्वामित्र उनको ऐसी विद्या सिखाते हैं, जिससे भूख और प्यास न लगे । यहां पर पुनः तुलसीदास यह कहने से नहीं चूकते कि जो विद्यानिधि अर्थात विद्या के भंडार हैं, उन्हीं को विश्वामित्र साधारण मनुष्य की भांति विद्या सिखा रहे हैं। तुलसी के शब्दों में :-
विद्यानिधि कहुॅं विद्या दीन्ही (दोहा वर्ग संख्या 208)
बाल रुप तथा किशोरावस्था में भगवान का स्वरुप साधारण मनुष्यों के समान ही था। साथ ही उसमें कुछ विशेषताएं तथा अद्भुत सामर्थ्य बल दिखाई भले ही देता है, लेकिन कुल मिलाकर एक मनुष्य की तरह ही श्रेष्ठ तथा स्वाभिमानी जीवन मूल्यों को प्रतिष्ठित करना क्योंकि भगवान राम के सगुण साकार अवतार लेने का ध्येय है, इसलिए भगवान का जीवन चरित्र चमत्कार के स्थान पर सहज सरल और स्वाभाविक रीति से अद्भुत पराक्रम के साथ आगे बढ़ता हुआ चला । तुलसी के दोहे, सोरठे और छंद के साथ-साथ चोपाई का सौंदर्य असाधारण है । इसके पढ़ने का आनंद ही कुछ और है।
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लेखक :रवि प्रकाश (प्रबंधक)
राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय (टैगोर स्कूल), पीपल टोला, निकट मिस्टन गंज, रामपुर, उत्तर प्रदेश
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