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26 Apr 2023 · 9 min read

*संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ/ दैनिक रिपोर्ट*

संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ/ दैनिक रिपोर्ट
26 अप्रैल 2023 बुधवार प्रातः 10:00 से 11:00 तक

आज अयोध्या कांड दोहा संख्या 192 से दोहा संख्या 232 तक का पाठ हुआ । स्वतंत्रता सेनानी तथा रामपुर में रामलीला के संस्थापक स्वर्गीय श्री देवी दयाल गर्ग के पौत्र श्री पंकज गर्ग तथा रामपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक स्वर्गीय श्री बृजराज शरण गुप्त ‘वकील साहब’ की पुत्रवधू श्रीमती शशि गुप्ता की पाठ में मुख्य सहभागिता रही ।

कथा-सार

भरत अयोध्या से चलकर चित्रकूट की ओर जा रहे हैं । उनका उद्देश्य राम को वन से वापस बुलाकर अयोध्या के राज सिंहासन पर बिठाना है । मार्ग में निषादराज गुह से उनकी भेंट होती है। प्रयागराज में ऋषि-मुनियों से मिलते हैं । सब लोग भरत के साधु-स्वभाव से प्रभावित हैं।

कथा-क्रम

निषादराज गुह संशय में है कि पता नहीं भरत मित्र हैं या शत्रु अथवा उदासीन स्वभाव के हैं। वह उनके मन की टोह लेने के लिए कुछ भेंट लेकर उनके पास जाता है। तुलसीदास जी लिखते हैं :-
मंगल मूल शगुन शुभ पाए (दोहा 192)
अर्थात शगुन मार्ग में ही दिखाई पड़ने लगे । तुलसीदास जी शगुन पर बहुत जोर देते हैं । अच्छे शगुन मिलने को वह कार्य के सफल होने का द्योतक मानते हैं।
भरत से भेंट करके जो भक्ति-भाव राम के प्रति निषादराज गुह ने देखा, उसको पाकर वह भरत जी के चरणों की वंदना करने लगा। अपनी सुध-बुध भूल गया । तुलसीदास लिखते हैं :-
देखि भरत कर शील सनेहू। भा निषाद तेहि समय विदेहू।। (चौपाई संख्या 194)
अर्थात भरत के शील और स्नेह को देखकर निषाद उस समय विदेह अर्थात देह की सुध-बुध से रहित हो गया।
तब भरत को अपने साथ लेकर निषादराज गुह श्रंगवेरपुर की ओर चलने लगा, इस साथ-साथ चलने को तुलसीदास जी ने इन शब्दों में अद्भुत रूप से चित्रित किया है :-
सोहत दिऍं निषादहि लागू। जनु तनु धरें विनय अनुरागू।। (चौपाई संख्या 196)
उपरोक्त पंक्तियों का अर्थ बिना हनुमान प्रसाद पोद्दार जी की टीका को पढ़े समझ में आना हमारे लिए तो असंभव ही था। हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने उपरोक्त पंक्ति की टीका इस प्रकार लिखी: “भरत जी निषाद को लाग दिए अर्थात उसके कंधे पर हाथ रखे चलते हुए ऐसे शोभा दे रहे हैं मानो विनय और प्रेम शरीर धारण किए हुए हों।”
उपरोक्त टीका में लागू शब्द को उसके मूल लाग देने तक पहुंच जाना और फिर उसका अर्थ यह निकाल लेना कि यह कंधे पर हाथ रखकर चलने के लिए प्रयोग में लाया गया है, हम जैसे सामान्य पाठकों के लिए लगभग असंभव ही है। हनुमान प्रसाद पोद्दार जी को तुलसीदास जी की रामचरितमानस की टीका लिखने के लिए हृदय से बार-बार धन्यवाद।
चित्रकूट के सारे रास्ते-भर भरत भगवान राम के प्रति प्रेम और भक्ति में डूबे हुए हैं। वह पश्चाताप की इस आग में जल रहे हैं कि उनकी माता ने उन्हें राम से विमुख तथा संसार में भारी कलंक को धारण करने वाला बना दिया। भरत की इस दशा को तुलसीदास जी ने श्रंगवेरपुर में जब भरत ने गंगा जी में स्नान कर लिया, तब इस प्रकार लिखा:-
जोरि पानि वर मागउॅं एहू। सियाराम पद सहज सनेहू।। (चौपाई 196)
अर्थात हे गंगा जी ! पानि अर्थात हाथ जोड़कर यही वर मांगता हूं कि सीता और राम के पद अर्थात चरणों में मेरा सहज स्नेह रहे।
निषादराज से पता करके भरत ने उस अशोक वृक्ष को प्रणाम किया, जहां राम सीता और लक्ष्मण ने विश्राम किया था। उन्होंने कुश की बनी हुई उस साथरी अर्थात शैया को देखकर भी प्रणाम किया जहां भगवान राम सोए थे।
भरत यह देखकर विचलित थे कि जिन रामचंद्र जी ने कभी दुख का नाम भी नहीं सुना था, उन्हें मेरे कारण जमीन पर बिछौना लगा कर सोना पड़ रहा है:-
सुख स्वरूप रघुवंश मणि, मंगल मोद निधान। ते सोवत कुश डासि महि, विधि गति अति बलवान।। (दोहा संख्या 200)
भरत बार-बार भाग्य की सत्ता को अत्यंत बलवान मानते हैं, जिसके कारण यह सब कुछ हो रहा है। वह सबसे ज्यादा अपने आप को दोष देते हैं ।कैकई को धिग अर्थात धिक्कार करते हैं और उसे सब प्रकार के अमंगल का मूल बताते हैं। कहते हैं कि विधाता ने मुझे कुल का कलंक सृजित कर दिया है और मेरी मां ने मुझे साईं अर्थात स्वामी का द्रोही बना दिया:-
धिग कैकई अमंगल मूला। (चौपाई संख्या 200)
कुल कलंकु करि सृजेउ विधाता। साइॅंदोह मोहि कीन्ह कुमाता।। (चौपाई संख्या 200)
भरत जी तो अयोध्या से ही पैदल चलकर आना चाहते थे। लेकिन कौशल्या के जोर देने पर उन्होंने रथ पर बैठना स्वीकार कर लिया था। लेकिन श्रंगवेरपुर के बाद जब प्रयागराज की ओर भरत जी चले, तब उनसे रथ पर बैठकर नहीं चला गया । रथ से उतर गए और पैदल चलने लगे। सेवकों ने कहा कि आप रथ पर सवार हो जाइए। तब भरत जी ने पुनः भगवान राम का स्मरण किया और कहा कि प्रभु राम तो पैदल चलकर ही वन को गए हैं। अच्छा तो यह होता कि हम सिर के बल चल कर उनके पास तक जाते। अर्थात हम पैदल चल रहे हैं, यह कोई बड़ी बात नहीं है:-
सिर भर जाउॅं उचित अस मोरा (चौपाई 202)
जब प्रयागराज पहुंचे और संगम में स्नान किया तो भरत जी ने संगम तीर्थ से केवल यही वरदान मांगा कि न मुझे धन, न धर्म, न काम, न निर्वाण चाहिए। बस केवल यही वरदान चाहता हूं कि जन्म-जन्मांतर राम के चरणों में मेरी रति अर्थात प्रेम बना रहे। और कुछ भी नहीं चाहता:-
अरथ न धरम न काम रुचि, गति न चहउॅं निर्वान। जन्म जन्म रति रामपद यह वरदानु न आन।। (दोहा 204)
भरत का राम के प्रति यह प्रेम अद्भुत है । भगवान की भक्ति के फल के रूप में प्रायः भक्त किसी सांसारिक वस्तु की कामना करते हैं अन्यथा मोक्ष तो अवश्य ही चाहते हैं। लेकिन भरत ने भक्ति के मूल को पकड़ लिया है। इसीलिए वह केवल भक्ति ही चाहते हैं।
भरत जी का राम के प्रति प्रेम अविचल है । स्वयं त्रिवेणी ने आकाशवाणी करते हुए कहा:-
तात भरत तुम सब विधि साधू। रामचरण अनुराग अगाधू।। (चौपाई संख्या 204)
प्रयागराज में भरद्वाज मुनि भी भरत से मिलकर उनकी साधुता से प्रभावित हैं। उन्होंने भी भरत को यही समझाया कि तुम पश्चाताप न करो। विधाता ने जो किया है, उस पर वास्तव में किसी का कोई वश नहीं चलता।:-
विधि करतब पर किछु न बसाई
अर्थात विधाता के कार्य पर कुछ वश नहीं चलता (चौपाई 205)
भरद्वाज मुनि ज्ञान के भंडार हैं। उन्होंने भरत से कहा कि अगर तुम पिता के वचन का पालन करते हुए अयोध्या में राजपद संभाल लेते तो भी तुम्हें कोई दोष नहीं लगता। लेकिन यह जो तुम पद का त्याग करके रामचंद्र जी को ही अयोध्या का राजा बनाने के लिए वन को जा रहे हो, यह तो बहुत ही सुंदर कार्य तुम्हारे द्वारा हो रहा है।
भरत जी ने भरद्वाज मुनि से तथा अन्य उपस्थित मुनिगणों से व्यथित हृदय से यह बात कही कि मुझे अपनी मां कैकई की करनी के कारण यह संसार दोषी पाएगा, इस का शोक नहीं है ।‌पूज्य पिताजी सर्व विख्यात थे अतः उनका भी शोक नहीं है। शोक की मूल बात यह है कि मेरे कारण राम लक्ष्मण और सीता मुनियों का वेश धारण करके तथा पैरों में बिना कुछ पहने हुए वन में घूम रहे हैं:-
राम लखन सिय बिनु पग पनहीं। करि मूनि वेश फिरहिं वन वनहीं।। (चौपाई संख्या 210)
इधर तो भरत रामचंद्र जी को मनाने के लिए वन की ओर जा रहे हैं, उधर देवता इस सोच में पड़े हैं कि कहीं भरत के कहने से राम अयोध्या वापस न आ जाएं और फिर राक्षसी शक्तियों के साथ युद्ध की बात बनते-बनते बिगड़ न जाए। वे चाहते हैं कि भरत के मार्ग में बाधा उत्पन्न कर दी जाए। गुरुदेव बृहस्पति ने इस बात को मना किया। उनका कथन है:-
रामहि सेवक परम पियारा (चौपाई 218)
अर्थात राम को अपना सेवक बहुत प्रिय है। अतः भरत क्योंकि राम के परम प्रिय सेवक हैं, अतः उनके साथ कोई छल कपट अथवा व्यवधान का विचार मन में मत लाओ।
मार्ग में भरत और शत्रुघ्न को चलते हुए देखकर गांव की स्त्रियां आपस में एक विशेष बात कहती हैं :-
नहिं प्रसन्न मुख मानस खेदा (चौपाई 221)
गांव की स्त्रियों ने भरत जी और शत्रुघ्न जी को रूप-रंग में तो राम-लक्ष्मण जैसा पाया, लेकिन भीतर की एक गहरी बात पकड़ ली । वह कहती हैं कि देखने में तो यह दोनों भी राम-लक्ष्मण जैसे ही लग रहे हैं लेकिन इनके मुख पर प्रसन्नता नहीं है बल्कि इनके मन में अत्यंत दुख भरा हुआ है। वास्तव में भरत जी तो पश्चाताप की अग्नि में जल रहे हैं, अतः उनका मुखमंडल दुख से भरा हुआ है दूसरी ओर राम वह मनुष्य शरीरधारी अवतारी भगवान हैं जो न तो राज्याभिषेक से प्रसन्न हुए और न वन जाने से दुखी हुए। अतः वन को जाते समय रामचंद्र जी के मुखमंडल पर सदैव विराजमान रहने वाली प्रसन्नता सबको दिखाई देती रही। गांव की स्त्रियां इसी प्रसन्नता के उपस्थित अथवा उपस्थित न होने के फर्क को रेखांकित कर रही हैं।
भरत का त्याग अनुपम है। तुलसीदास जी भरत की प्रशंसा करते हुए गांव की स्त्रियों के माध्यम से लिखते हैं:-
चलत पयादें खात फल, पिता दीन तजि राज। जात मनावन रघुवरहिं भरत सरिस को आज।। (दोहा 222)
अर्थात पैदल चल रहे हैं, केवल फल खा रहे हैं, पिता के दिए हुए राज्य को तज अर्थात त्याग दिया है, रघुनाथ जी को मनाने के लिए जा रहे हैं, ऐसे भरत के समान आज भला कौन है ?
तुलसीदास जी शगुन पर बहुत जोर देते हैं। जब भगवान राम से मिलने के लिए भरत जी और आगे बढ़े तो अंग फड़कने के शुभ शगुन साथ के सभी व्यक्तियों में होने लगे। तुलसीदास जी लिखते हैं:-
मंगल शगुन होहिं सब काहू। फरकहिं सुखद विलोचन बाहू।। (चौपाई 224)
अर्थात बॉंह शगुन के अनुरूप उचित प्रकार से फड़कने लगी। यह सब मंगलमय सगुन के सूचक हैं। बॉंह फड़कने को हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने लिखा है कि पुरुषों के दाहिने और स्त्रियों के बाएं फड़कना शुभ होता है।
परिस्थितियां कैसा विचित्र मोड़ ले रही हैं। भरत तो राम के प्रेम में मगन होकर चित्रकूट की ओर जा रहे हैं, मगर लक्ष्मण जब उनकी सेना देखते हैं; तब भरत के प्रति दोषपूर्ण अवधारणा मन में बिठा लेते हैं । उनको लगता है कि भरत युद्ध करने के लिए आ रहे हैं। ऐसे में अत्यंत क्रोधित होकर लक्ष्मण भरत के प्रति कटु वचन कहने लगते हैं। उन्होंने कहा:-
जग बौराइ राजपद पाए (चौपाई 227)
यह केवल राम ही हैं जिनका भरत की अनासक्त भावना पर पूरा विश्वास है। वह कहते हैं कि यह बात तो सही है कि राज पद पाकर सब लोग बौरा जाते हैं लेकिन भरत में यह बात नहीं है। अयोध्या का छोटा-सा राज्य तो क्या, अगर उन्हें ब्रह्मा विष्णु और महेश का पद भी मिल जाए तब भी उन्हें राजमद नहीं हो सकता:-
भरतहिं होइ न राज मद, विधि हरि हर पद पाइ (दोहा 231)
पुनः इसी बात को दोहराते हैं:-
होइ न नृपमदु भरतहि भाई (चौपाई 231)
इसमें संदेह नहीं कि अगर कोई साधारण व्यक्ति होता तो अपने राज्य को निष्कंटक बनाने के लिए राम, लक्ष्मण और सीता को रास्ते का कांटा समझते हुए हटा देने पर भी विचार कर लेता। अपनी सेना का उपयोग रक्तपात के लिए कर बैठता। सत्ता के लिए संघर्ष इतिहास के प्रष्ठों पर कुटिलतापूर्वक लिखा हुआ भरा पड़ा है। सर्वत्र वह ही लोग देखने में आते हैं, जो राज्य सत्ता के लिए निम्न से निम्न कोटि का पाप करने से भी नहीं हिचकिचाते हैं। ऐसे में एक व्यक्ति अपनी मां के षड्यंत्र को अस्वीकार करते हुए अपनी निरपराधिता को रो-रो कर संसार के सामने कह रहा है। जिसे सत्ता का कोई लोभ नहीं है और जो हृदय की गहराइयों से यह चाहता है कि राजपद राम वास्तव में वापस ले लें। ऐसे महापुरुष हजारों वर्षों में केवल भरत ही हो सकते हैं ।
यहां बात व्यक्ति पर विश्वास की भी होती है। जिन लोगों का चरित्र बहुत ऊंचा होता है, उनके बारे में कोई संदेह भी नहीं किया जा सकता। भरत उसी कोटि के तपस्वी और त्यागी व्यक्ति हैं। उनके चरित्र के मूल्य को राम भली-भांति जानते हैं। उन्हें मालूम है कि भरत पर संदेह नहीं किया जा सकता। भरत राजपद पाकर बौरा जाने वाले व्यक्ति नहीं हैं। उन्हें वास्तव में राजपद का कोई लोभ नहीं है। रामचरितमानस न केवल राम के महान चरित्र की गाथा है अपितु भरत के प्रसंग ने उसे और भी अधिक महिमावान बना दिया है। जो लोग महापुरुषों के संपर्क में आते हैं, उनमें महापुरुषों के गुण भरे हुए होते हैं। ऐसा विश्व-इतिहास में अनेक स्थानों पर देखा जा सकता है। रामकथा में भरत का प्रसंग भी इसका अपवाद नहीं है।
————————————-
लेखक : रवि प्रकाश (प्रबंधक)
राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय (टैगोर स्कूल), पीपल टोला, निकट मिस्टन गंज, रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 99976 15451

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