*संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ/ दैनिक रिपोर्ट*
संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ/ दैनिक रिपोर्ट
24 अप्रैल 2023 सोमवार प्रातः 10:00 से 11:00 तक (रविवार अवकाश)
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आज अयोध्या कांड दोहा संख्या 121 से 152 तक का पाठ हुआ। धर्मपत्नी श्रीमती मंजुल रानी की प्रेरणा और सहयोग से ही यह कार्य शुरू होकर संभव हो पा रहा है। उनका हृदय से धन्यवाद।
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कथा-सार
भगवान राम, सीता और लक्ष्मण वन की ओर जाते समय मार्ग में वाल्मीकि जी के आश्रम में आए। वाल्मीकि जी को प्रणाम किया। रामचंद्र जी द्वारा रहने के योग्य स्थान के बारे में पूछने पर वाल्मीकि जी ने उन्हें चित्रकूट पर्वत पर निवास करने का परामर्श दिया। जिसके बाद रामचंद्र जी चित्रकूट पर्वत पर जाकर रहने लगे। उधर सुमंत्र राजा दशरथ के पास अकेले वापस लौट आए। दशरथ राम के वियोग में अत्यंत व्याकुल हो गए।
कथा-क्रम
उपमा देना तो कोई तुलसीदास जी से सीखे। राम, सीता और लक्ष्मण को वन की ओर जाते हुए जो चित्रण रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने किया है, वह अद्भुत है । लिखते हैं :-
जनु बुध बिधु बिच रोहिणि सोही।। (दोहा वर्ग संख्या 122)
अर्थात विधु अर्थात चंद्रमा तथा बुध अर्थात चंद्रमा के पुत्र के बीच में मानों रोहिणी अर्थात चंद्रमा की पत्नी सुशोभित हो रही हों। बुध, चंद्रमा और रोहिणी की उपमा अद्वितीय है। ऐसी उपमा केवल तुलसीदास जी की लेखनी से ही होना संभव है।
वन में भ्रमण करते समय किस प्रकार की दिनचर्या रहती थी, इस पर थोड़ा-सा प्रकाश एक चौपाई के माध्यम से पड़ रहा है। तुलसी लिखते हैं :-
तब रघुवीर श्रमित सिय जानी। देखि निकट बटु शीतल पानी।। तहॅं बसि कंद मूल फल खाई। प्रात नहाइ चले रघुराई ।। (दोहा संख्या 123)
अर्थात जब चलते-चलते सीता जी को रामचंद्र जी ने थका हुआ पाया, तब एक बड़ के पेड़ के नीचे वह ठहर गए कंदमूल फल खाए । हनुमान प्रसाद पोद्दार जी अपनी टीका में यह स्पष्टीकरण जोड़ देते हैं कि “रात भर वहां रहकर प्रातः काल स्नान करके श्री रघुनाथ जी आगे चले।”इससे अर्थ खुलकर स्पष्ट हो गया।
अगला पड़ाव महर्षि वाल्मीकि का आश्रम था। यहां पहुंच कर भगवान राम ने महर्षि वाल्मीकि को प्रणाम किया तथा महर्षि वाल्मीकि ने भगवान राम को आशीर्वाद दिया :-
मुनि कहुॅं राम दंडवत कीन्हा। आशीर्वाद विप्रवर दीन्हा।। (चौपाई वर्ग संख्या 124)
आश्रम में रामचंद्र जी अपने वन आने का कारण विस्तार से महर्षि वाल्मीकि को बताते हैं। लेकिन साथ ही यह भी कहते हैं कि आप तो त्रिकालदर्शी हैं:-
तुम्ह त्रिकालदर्शी मुनिनाथा (चौपाई संख्या 124)
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान राम और महर्षि वाल्मीकि न केवल समकालीन थे, बल्कि तुलसी इस बात को भलीभांति जानते थे कि महर्षि वाल्मीकि को राम की कथा त्रिकालदर्शी होने के नाते पहले से ही ज्ञात थी।
महर्षि वाल्मीकि से भगवान राम ने यह पूछा कि कोई ऐसा स्थान बताइए जहां मैं कुछ समय निवास कर सकूं। महर्षि वाल्मीकि ने उन्हें चित्रकूट पर्वत पर निवास करने की सलाह दी। कहा कि यहां परम पवित्र मंदाकिनी नदी बहती है जिसे अत्रि ऋषि की पत्नी अनुसूया जी अपने तपोबल से लेकर आई थीं।:-
चित्रकूट गिरि करहु निवासू (चौपाई संख्या 131)
यद्यपि भगवान राम के पूछने पर चित्रकूट तो बहुत सहजता से महर्षि वाल्मीकि ने बता दिया, लेकिन केवल इतने से तुलसीदास को संतोष नहीं हुआ। उन्होंने वाक् चातुर्य और भक्ति-प्रवणता से कुछ ऐसे स्थलों के बारे में भी बताया, जहां भगवान निवास करते हैं। उनमें से एक स्थान उन लोगों का हृदय है, जो दूसरों की संपत्ति देखकर प्रसन्न होते हैं:-
जे हरषहिं पर संपति देखी। दुखित होहिं पर विपति विशेषी।। (चौपाई 129)
एक अन्य स्थान पर भी भगवान निवास करते हैं। तुलसी लिखते हैं :-
जननी सम जानहिं पर नारी
एक और प्रकार के मनुष्य भी होते हैं, जहां भगवान निवास करते हैं । विशेषता बताते हुए तुलसी लिखते हैं :-
जिन्हकें कपट दंभ नहीं माया। तिन्हकें हृदय बसे रघुराया।। (चौपाई 129)
तुलसी ने उपरोक्त चौपाइयों के माध्यम से सच्चे सरल हृदय के स्वामित्व वाले व्यक्तियों के लिए ही ईश्वर को प्राप्त कर सकने की स्थिति पर बल दिया है । जिनके हृदय में कोई छल-कपट नहीं होता, केवल वही लोग भगवान को प्राप्त कर सकते हैं।
जो लोग जननी अर्थात माता के समान पराई स्त्रियों को देखते हैं, वही व्यक्ति भगवान को प्राप्त कर सकते हैं ।
जो लोग दूसरों की धन-संपत्ति देखकर प्रसन्न होते हैं तथा दूसरों को विपत्ति में देखकर दुखी हो जाते हैं, उन व्यक्तियों के हृदय में भगवान राम बसते हैं। आमतौर पर समाज की गति ऐसी है कि व्यक्ति दूसरों की संपत्ति देखकर ईर्ष्या करने लगता है तथा अपनी ही आग से स्वयं जल जाता है। मनुष्य का स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि वह दूसरों को विपत्ति में देखकर मन ही मन खुश होता है। छल और कपट तो मनुष्य के नस-नस में बसा हुआ है। तुलसीदास जी इस प्रकार की दुष्प्रवृत्तियों के रहते हुए भगवान को प्राप्त कर सकने की संभावनाओं से पूरी तरह इंकार कर देते हैं । इस तरह वह एक सकारात्मक विचारों से परिपूर्ण मनुष्य के निर्माण पर बल देते हैं। यह सब सदुपदेश तुलसीदास जी ने महर्षि वाल्मीकि जी के श्रीमुख से कहलवाए हैं तथा इनकी आध्यात्मिक उपादेयता में कोई संदेह नहीं है । यह ऊंचे दर्जे के सद्गुण हैं, जिनको प्रत्येक उस व्यक्ति को आत्मसात करना चाहिए जो अध्यात्म के पथ पर आगे बढ़ना चाहता है।
महर्षि वाल्मीकि से विदा लेकर भगवान राम चित्रकूट पर्वत पर आ गए। जहां कोल और किरात अर्थात भील समुदाय के लोग उनके प्रति अपना प्रणाम निवेदित करने के लिए हर्ष से भर कर आने लगे। सबके हृदय में भगवान राम को देखकर अत्यंत संतोष और सुख का भाव था। इस अवसर पर तुलसीदास जी लिखते हैं:-
रामहि केवल प्रेम पियारा (चौपाई 136)
अर्थात भगवान राम ने कहा कि मुझे तो केवल प्रेम ही प्यारा है। इसका अर्थ यह हुआ कि भगवान को किसी भौतिक पदार्थ से हम प्रसन्न नहीं कर सकते। केवल भगवान से प्रेम करके तथा भगवान की समस्त सृष्टि से प्रेम-भाव अपनाकर ही भगवान से प्रेम किया जा सकता है ।तभी भगवान मिलेंगे।
यद्यपि वन में अनेक प्रकार के कष्ट मिलते हैं लेकिन फिर भी तुलसीदास जी ने सीता को राम के साथ अत्यंत प्रसन्नता पूर्वक वनवास करते हुए दिखाया है। उन्होंने इसके अनेक कारण भी बताए हैं। मूल कारण यह है कि पति के साथ पत्नी को सब परिस्थितियों में सुख और संतोष प्राप्त होता है:-
पर्णकुटी प्रिय प्रियतम संगा(चौपाई 139)
अर्थात पर्णकुटी भी प्रिय लगती है, अगर प्रियतम साथ हैं।
एक अन्य स्थान पर तुलसी सॉंथरी अर्थात कुश और पत्तों की सेज को भी इसलिए सुखदाई बताते हैं क्योंकि वह पति के साथ उपलब्ध हो रही है। तात्पर्य यह है कि श्री रामचंद्र जी के साथ वन में विचरण करते हुए जानकी जी सब प्रकार से संतुष्ट और सुखी थीं क्योंकि उन्हें प्रिय का साथ मिला हुआ था:-
नाथ साथ सॉंथरी सुहाई (चौपाई संख्या 139)
सॉंथरी शब्द की टीका हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने “कुश और पत्तों की सेज” लिखकर अर्थ को सहज कर दिया । आपका बहुत-बहुत आभार।
इधर भगवान राम वन में निवास करने के लिए चले गए और प्रसन्नता पूर्वक सीता और लक्ष्मण के साथ 14 वर्ष के लिए वन में रहने का क्रम आरंभ कर चुके हैं, तो वहीं दूसरी ओर जब सुमंत्र ने अकेले अयोध्या लौट कर राजा दशरथ को यह बताया कि हर प्रकार से समझाने पर भी भगवान राम, लक्ष्मण और सीता उनके साथ लौटकर नहीं आए; तब राजा दशरथ अत्यंत व्याकुल हो गए तथा सुनते ही जमीन पर गिर पड़े:-
परेउ धरनि उर दारुण दाहू (चौपाई 152)
अर्थात धरती पर गिर पड़े तथा उर अर्थात हृदय में दारुण दाह को उन्होंने प्राप्त किया। यहां यह बात भी उल्लेखनीय है कि सुमंत्र ने जैसा-जैसा विवरण सही था, वह ज्यों का त्यों महाराज दशरथ को सुना दिया। यहां तक कि लक्ष्मण ने जो अनुचित बातें कही थीं और जिनको महाराज दशरथ से कहने के लिए भगवान राम ने सुमंत्र से मना कर रखा था, वह बात भी सुमंत्र ने राजा दशरथ को बता दी। तुलसी ने कहीं भी यह स्पष्ट नहीं किया कि लक्ष्मण ने जो अनुचित बात कही थी, वह बात क्या थी? अनेक लेखक बहुत सी बातों को अनदेखा करके प्रायः आगे बढ़ जाते हैं। तुलसी ने भी लक्ष्मण के अनुचित कथन को ज्यादा महत्व नहीं देना चाहा।
महाराज दशरथ जहां एक ओर राम और लक्ष्मण के वन चले जाने से दुखी थे, वहीं सीता के भी वापस न लौटने की स्थिति उन्हें और भी विचलित कर रही थी। वह तुलसी के शब्दों में ऐसे व्याकुल हो गए मानों मीन अर्थात मछली को माजा व्याप्त हो गया हो । हनुमान प्रसाद पोद्दार अपनी टीका में इसे इस प्रकार लिखते हैं: “मानो मछली को मांजा व्याप गया हो (पहली वर्षा का जल लग गया हो):-
माजा मनहुॅं मीन कहुॅं व्यापा।। (चौपाई अयोध्या कांड 152)
कैकेई ने मंथरा के द्वारा दी गई गलत सलाह को स्वीकार करके अयोध्या में जो विनाश का बीज बोया, उसकी परिणति महाराज दशरथ के राम के वियोग में तड़पने के रूप में हमें देखने को मिल रही है। अनेक बार व्यक्ति लोभ और मोह में अंधा हो जाता है तथा उचित-अनुचित के भेद को समझ पाने में असमर्थ हो जाता है। कैकई ने महाराज दशरथ के साथ यही व्यवहार किया था।
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लेखक : रवि प्रकाश (प्रबंधक)
राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय (टैगोर स्कूल), पीपल टोला, निकट मिस्टन गंज, रामपुर, उत्तर प्रदेश
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