संपूर्ण गीता : एक अध्ययन
संपूर्ण गीता : एक अध्ययन
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धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में ,रण की इच्छा पाल
क्या करते संजय कहो ,पांडव मेरे लाल
1/1
कुरुक्षेत्र की रणभूमि में कौरवों और पांडवों की सेनाएँ आमने-सामने खड़ी थीं। युद्ध का बिगुल बज चुका था । ऐसे अवसर पर कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया । यह परिदृश्य ही स्वयं में स्पष्ट करता है कि गीता समस्याओं से घिरे हुए मनुष्य को कर्म की राह सुझाने वाली एक कुंजी है। यह केवल सिद्धांतों के कल्पना-लोक में विचरण का विषय नहीं है । यह तो समस्याओं के सटीक समाधान का मार्ग प्रशस्त करने वाला ग्रंथ है।
समग्रता में गीता का उद्देश्य निष्क्रिय व्यक्ति को सक्रिय बनाना है । ओजस्वी, उत्साह और उल्लास से भरा हुआ व्यक्ति ही गीता को प्रिय है । मुरझाया हुआ ,हताश और निराश ,कर्तव्य से विमुख व्यक्ति गीता पसंद नहीं करती । इसके लिए वह कोई तात्कालिक उपाय नहीं सुझाती है । वह केवल आदेश नहीं देती । गीता संपूर्णता में व्यक्तित्व का निर्माण करती है। एक श्रेष्ठ व्यक्ति तथा एक श्रेष्ठ समाज का निर्माण गीता का व्यापक उद्देश्य है । इसी लक्ष्य की सिद्धि के लिए गीता अठारह अध्यायों में मनुष्य-निर्माण की एक बड़ी पाठशाला का दृश्य उपस्थित कर देती है । कहीं भी कृष्ण अर्जुन को आदेशित-मात्र नहीं करते ।
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अर्जुन का भ्रम
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पहले अध्याय में तो कृष्ण बहुत ध्यानपूर्वक तथा धैर्यपूर्वक अर्जुन के विचारों को सुनते हैं । अर्जुन जो तर्क कृष्ण के सामने उपस्थित करता है ,वह उन्हें सुनने में न तो अरुचि प्रकट करते हैं और न ही अर्जुन की बात को काटने में कोई अधीरता दिखाते हैं। अर्जुन रणभूमि में हताश और निराश है। उसके मन में रागात्मकता का भाव इस प्रकार से जागृत हो गया है कि वह अपने कर्तव्य को ही भूल गया है । कृष्ण अर्जुन के विषाद को महसूस करते हैं । यहाँ महत्वपूर्ण बात यह भी है कि अर्जुन वास्तव में दिग्भ्रमित है । वह आगे बढ़ने की स्थिति में नहीं है । सचमुच वह अपने सारथी श्रीकृष्ण से मार्गदर्शन चाहता है । गुरु के रूप में उन्हें स्वीकार करता है तथा विनय पूर्वक उनसे मार्गदर्शन की अपेक्षा करता है । अर्जुन का यह स्वभाव बहुत महत्वपूर्ण है । जो व्यक्ति वास्तव में दिशा-बोध चाहता है ,उसे रास्ता सुझाया जा सकता है और वह सही रास्ते पर चल भी सकता है लेकिन अगर कोई पूर्वाग्रह से ग्रस्त है ,कुतर्क पर आमादा है ,ऐसे में उसे विचार प्रस्तुत करने से कोई लाभ नहीं होता । जागते हुए को नहीं जगाया जा सकता । जो सोया हुआ है ,केवल उसे ही जगाया जा सकता है ।
अर्जुन की निष्क्रियता और विषाद चरम पर है । वह कहता है :
तीनों लोकों का मिले ,अगर राज्य हे नाथ
मर जाऊँ लूँगा नहीं ,कभी शस्त्र का साथ
1/35
अर्जुन का मतिभ्रम इस कोटि का है कि वह युद्ध को ही पाप समझ बैठता है । वह कृष्ण से कहता है :
पाप अरे हम कर रहे ,लिए हाथ में बाण
लेने सत्ता के लिए , इष्ट-बंधु के प्राण
1/45
कृष्ण सीधे-सीधे अर्जुन से युद्ध करने की बात नहीं कहते । वह अर्जुन को देह की सीमित परिधि से बाहर ले जाकर आत्मा के विशाल और विराट परिदृश्य में खड़ा कर देते हैं । यहां आकर शरीर गौण हो जाता है और आत्मा मुख्य तथा अत्यंत मूल्यवान वस्तु के रूप में सामने आती है।
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आत्मा का अमरत्व
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कृष्ण आत्मा के अमरत्व की बात कहते हैं और यह बताते हैं आत्मा कभी भी नष्ट नहीं होती । शरीर बार-बार जन्म लेता है और मरता रहता है लेकिन आत्मा एक ऐसी अविनाशी वस्तु है जो वस्त्र के समान शरीर को बार-बार धारण करती है ।
बचपन यौवन प्रौढ़ ज्यों, होती है नर देह
आत्मा पाती है नया, तन भी निस्संदेह 2/13
आत्मा लेती जन्म कब ,मरने का क्या काम
यह शरीर जन्मा-मरा , सौ-सौ इसके नाम
2/20
आत्मा कटे न शस्त्र से ,गला न पाता नीर
जले न आत्मा अग्नि से ,सोखे नहीं समीर
2/23
कृष्ण बताते हैं कि सबने न जाने कितने जन्म ले लिए हैं । जन्म जन्मांतरोंके इस क्रम में सौ साल का एक व्यक्ति का जीवन नदी के प्रवाह में बहते हुए तिनके के समान ही कहा जा सकता है।
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आसक्ति-रहित कर्म
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इसी बिंदु पर कृष्ण अर्जुन से यह भी कहते हैं कि तुम्हारा केवल कर्म करने का अधिकार है तथा तुम्हें अनासक्त भाव से कर्म करना चाहिए। तुम विधाता की नियति से बंधे हुए हो ।
कर्म सिर्फ अधिकार है,फल-आसक्ति विकार
फल की इच्छा से रहित , उचित कर्म आधार
2/47
अर्जुन को कृष्ण बताते हैं कि आत्मा को चाहे अचरज के रूप में देखो लेकिन आत्मा सृष्टि की एक वास्तविकता है । आत्मा के गहन संसार में जब कृष्ण अर्जुन को ले जाते हैं तब उसके बाद वह अर्जुन को इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने का मार्ग सुझाते हैं । यहां आकर वह समाधि की अवस्था तथा स्थितप्रज्ञ जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं। स्थिर बुद्धि की व्याख्या करते हैं तथा विषय वासनाएँ किस प्रकार से मनुष्य का सर्वनाश कर देती हैं ,इसका चित्र उपस्थित करते हुए इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने का मार्ग बताते हैं ।
अंतर्दृष्टि तभी मिली ,जब समाधि में गूढ़
सुन-सुनकर चंचल हुई ,किंकर्तव्यविमूढ़
2/55
होती थिर वह बुद्धि है ,नहीं वस्तु की चाह
जिसमें हर्ष न शोक है ,नहीं अशुभ-शुभ राह
2/57
जैसे कछुआ अंग के ,खींचे चारों छोर
इंद्रिय खींचे बुद्धि-थिर ,फैली चारों ओर
2/58
विषय वासनाओं में डूबने से व्यक्ति का किस प्रकार क्रमशः सर्वनाश हो जाता है ,इसका सिलसिलेवार वर्णन गीता मनोवैज्ञानिक आधार पर करती है । एक-एक कदम कर के व्यक्ति पतन के गर्त में डूबता चला जाता है और फिर सिवाय हाथ मलने के उसके पास कुछ नहीं बचता। गीता कहती है :
विषयों के अति ध्यान से ,होता है अनुराग
इच्छा फिर पैदा हुई ,हुआ क्रोध ज्यों आग
क्रोध हुआ फिर मूढ़ता ,होता स्मृति का नाश
बुद्धि नष्ट होती तभी , सर्वनाश का पाश
2/ 62,63
कृष्ण कहते हैं कि इंद्रियों पर विजय प्राप्त करना केवल कर्मकांड नहीं है । इसका संबंध मन से कहीं अधिक है । अनेक बार मन से विषय-वासनाओं का चिंतन करते हुए व्यक्ति अपने आप को एक पाखंड और ढोंग के आवरण में लपेट लेता है । कृष्ण इस स्थिति को पूरी तरह से अस्वीकार्य करते हैं।
पाखंडी वह व्यक्ति है ,मन में विषय विकार
ऊपर से संयम दिखे , भीतर मिथ्याचार
3/6
वह राजा जनक का उदाहरण देते हैं और कहते हैं कि संसार में रहते हुए व्यक्ति महान कर्मयोगी बन सकता है ।
अनासक्त जनकादि थे ,करते रहते कर्म
लोगों में घुल-मिल गए ,समझे असली मर्म 3/20
कृष्ण यह भी कहते हैं कि अज्ञानी व्यक्ति बहुधा बहुत ऊंचे स्तर का मार्ग नहीं अपना पाता लेकिन फिर भी अगर वह किसी भी रूप में कर्मरत है तो ज्ञानियों को उसे भ्रम में नहीं डालना चाहिए ।
विचलित मत किंचित करो ,अज्ञानी के कर्म
उन्हें सही गुण क्या पता ,उन्हें पता क्या मर्म 3/29
अब प्रश्न यह भी आता है कि आत्मा खोजी कैसे जाए ? कृष्ण का कहना है कि वास्तव में आत्मा खोजना बड़ा कठिन है ।
दुष्कर आत्मा खोजना ,परे बुद्धि का ज्ञान
मन को निज वश में करो ,जीतो काम महान
3/43
इन सब बातों से गीता की एक योजना चल रही है। योजना शरीर को दूसरे दर्जे का मानते हुए पहले दर्जे पर आत्मा के अस्तित्व का बोध रहता है । इंद्रियों पर विजय प्राप्त करते हुए समाधि के भाव से जीवन जीना गीता सिखाती है ।
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ईश्वर का अवतार
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कृष्ण गीता में कहते हैं कि इस संसार में दुष्टों का और आतताइयों का जब प्रभुत्व बढ़ने लगता है ,तब ईश्वर का अवतार होता है और वह दुष्टों का संहार करते हैं।
घटता जब-जब धर्म है ,बढ़ जाता है पाप
धर्म हेतु मैं निज प्रकट ,अर्जुन करता आप
4/7
सज्जन की रक्षा करूँ ,दुष्टों का संहार
समय-समय पर जन्म का ,मेरा धर्माधार
4/8
ईश्वर का अवतार इस दृष्टि से बहुत आश्वस्त करने वाली योजना है ,जो मनुष्य को उत्साह और आशा के भाव से भर देती है । अगर यह स्थिति न हो कि ईश्वर का अवतार ही नहीं होगा अथवा दुर्जन व्यक्ति संसार पर सदा शासन करते रहेंगे तथा अच्छाइयों की विजय का मार्ग प्रशस्त नहीं होगा ,तब संसार घोर निराशा के भंवर में डूब जाएगा । गीता इसे अस्वीकार करती है।
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समान आत्मा का दर्शन
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गीता योगमय स्थिति को भी सामने लाती है ,जिसमें व्यक्ति सभी प्राणियों में समानता का भाव देखता है। उसे न वर्ण के आधार पर कोई भेदभाव स्वीकार है और न शरीर धारण के आधार पर पशु-पक्षी या मनुष्य में कोई भेद स्वीकार है । वह तो सब में एक समान आत्मा के दर्शन करती है ।
मिली वस्तु अथवा नहीं ,सुख-दुख एक समान
सफल विफल ईर्ष्या-रहित ,योगी समतावान
4/22
ब्राह्मण गौ हाथी तथा ,कुत्ता या चांडाल
ज्ञानी को यह चाहिए ,इनमें भेद न पाल
5/18
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ध्यान की विधि
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गीता के पाँचवें अध्याय में ध्यान की विधि सिखाई गई है । ध्यान किस प्रकार से लगाया जाता है, इसको बताया गया है।
इस तरह गीता ध्यान के क्षेत्र में व्यवहारिक रुप से हमारा पथ प्रदर्शन करती है तथा ध्यान के मूलभूत सिद्धांतों को प्रैक्टिकल धरातल पर हमें सिखाने का काम करती है।
भृकुटी मध्य रखो नजर ,करो श्वास व्यवहार
तजो विषय सब वासना ,प्राण-अपान सुधार
5/27
छठे अध्याय में तो ध्यान की पूर्ण विधि ही वर्णित कर दी गई है । गीता कहती है :
एकाकी बैठा करो , संयम भरो विशेष
त्यागो संग्रह इस तरह ,किंचित बचे न शेष
6/10
बैठो समतल भूमि पर ,पावन आसन डाल
वस्त्र कुशा मृगचर्म हो ,रखना होगा ख्याल
6/11
सीधा रखना देह सिर ,गर्दन अचल विचार
दृष्टि जमे नासाग्र पर , यह ही योगाचार
6/13
जैसे दीपक वायु-बिन ,जलता कंप विहीन
योगी की उपमा यही , चित्त आत्म में लीन
6/19
गीता यह भी कहती है कि जब व्यक्ति का दूसरा जन्म होता है ,तब वह उसी मोड़ से अपनी आगे की यात्रा आरंभ करता है जहां उसने उस यात्रा को पीछे छोड़ा हुआ था। अर्थात व्यक्ति की उपलब्धियां समाप्त नहीं होतीं। शरीर नष्ट होने के बाद भी आत्मा अपने साथ नए शरीर में सब प्रकार की साधना की उपलब्धियों को लेकर आगे बढ़ती है।
योग अधूरा यदि रहा , आता फिर भी काम
नया जन्म शुचि घर मिला,शुभ परलोक विराम
दुर्लभ जन्म महान है ,मिले योग-परिवार
पाता है सदभाग्य से , जन ऐसा संसार
पूर्व जन्म के जो मिले ,जिसको जो संस्कार
शुरू वहीं से वह करे , देता नव आकार
6 /41 ,42 ,43
इस तरह यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यक्ति को जो साधना में सिद्धि प्राप्त होती है ,वह अनेक जन्मों की साधना का फल होता है। इस जन्म में जितना काम अधूरा रह जाता है, व्यक्ति पूर्व-जन्म की प्रेरणा से उस कार्य को वहीं से शुरू करता है और लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़ जाता है। सिद्धि कई जन्मों के बाद मिलती है :
किया जन्म जन्मांतरों ,जिसने खुद को शुद्ध
उसे परम गति मिल सकी , होता पूर्ण प्रबुद्ध
6/45
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निराकार का साकार दर्शन
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गीता निराकार में साकार को तथा साकार में निराकार को देखती है । परमात्मा निराकार है क्योंकि उसका कोई ओर-छोर नहीं है । ऐसे निराकार परमात्मा का दर्शन तभी संभव है ,जब स्वयं परमात्मा की कृपा प्राप्त हो जाए । परमात्मा कृपा करके भक्तों को दिव्य दृष्टि देते हैं और तब उस दिव्य दृष्टि के द्वारा वह परमात्मा के निराकार स्वरूप को साकार भाव में देख पाता है।
इस तरह परमात्मा की प्राप्ति तभी संभव है तथा ईश्वर-साक्षात्कार की स्थिति तभी आ सकती है जब व्यक्ति को परमात्मा की कृपा प्राप्त हो जाए । कृष्ण गुरु हैं,कृष्ण सारथी हैं ,कृष्ण मार्गदर्शक हैं और कृष्ण स्वयं में पूर्णब्रह्म हैं। अर्जुन को सौभाग्य से उनकी कृपा मिल गई अन्यथा अठारह अक्षौहिणी सेना उसके किसी काम की नहीं रहती । व्यक्ति के सामने जीवन में दो विकल्प आते हैं । एक ,संसार की धन संपदा और दूसरा ,सद्विवेक । जो सद्विवेक को चुन लेता है ,उसका जीवन अर्जुन के समान सफल हो जाता है । अन्यथा रण क्षेत्र में अर्जुन दीन हीन अवस्था को प्राप्त होकर युद्ध से पलायन कर चुका होता और उचित सारथी के अभाव में उसे मार्गदर्शन देने वाला भी कोई नहीं मिलता । परमात्मा का निराकार स्वरूप अपने आप में संपूर्ण सृष्टि के समस्त रहस्यों को समाए हुए है।
परमात्मा का स्वरूप जानना लगभग असंभव है । गीता जहाँ एक ओर परमात्मा के निराकार स्वरूप का पक्ष सामने रखती है वहीं इसकी दुरुहता को भी बताने से नहीं चूकती । वास्तव में निराकार को जानना बड़ी टेढ़ी खीर है। इसलिए अनेक प्रकार से गीता उस निराकार के स्वरूप को बताने का प्रयत्न करती है।
निराकार शाश्वत सदा , जो सर्वत्र समान
उसकी जन पूजा करें ,अचल अचिंत्य महान
12 /3
निराकार भजना कठिन ,कठिनाई से प्राप्त
देहवान कैसे भजे , वह जो सब में व्याप्त
12 /5
सातवें अध्याय के एक श्लोक में कृष्ण कहते हैं कि यह संपूर्ण संसार मेरे भीतर इसी प्रकार से समाहित है जैसे एक माला में मणियाँ गुँथी हुई रहती हैं ।
माला में मणि जिस तरह ,ईश्वर में संसार
परे न कुछ भी ईश से ,जग प्रभु का विस्तार
7/7
ईश्वर का दिव्य रूप देखना और समझना कठिन है। केवल गीता में ही ग्यारहवें अध्याय में परमात्मा के विश्वरूप दर्शन कराए गए हैं । कृष्ण अपने विश्वरूप को प्रकट करते हैं और अर्जुन को वह अद्भुत स्वरूप देखना सुलभ हो जाता है । निराकार परमात्मा साकार रूप में अर्जुन के सामने अपने रहस्यों को प्रगट कर देते हैं । अर्जुन विस्मय से भर उठता है । वह कभी परमात्मा को देखता है, कभी उनके अद्भुत स्वरूप को निहारता है । वह देखता है कि समूचे संसार की जितनी भी प्रवृतियाँ हैं ,वह सब उस विश्वरूप में समाहित हो चुकी हैं । जीवन और मरण की जितनी भी गुत्थियाँ हैं ,वह सब उस विश्वरूप के दर्शन से सुलझ रही हैं। उसमें सूर्य चंद्रमा तारे पृथ्वी आकाश मृत्यु और जीवन के जितने भी चिन्ह हो सकते हैं, वह सब दिखाई पड़ रहे हैं । यह सृष्टि के विराट जन्म और मरण का क्रम है ,जो लगातार चल रहा है । कृष्ण अपनी उस निराकार सत्ता को अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को दिखाते हैं ताकि वह शरीर के क्षणिक बोध से ऊपर उठ सके और विश्व पुरुष की व्यापक योजना को पहचान पाए । वास्तव में इस पूरे प्रसंग का संदेश यही है कि हम परमात्मा की कृपा से ही परमात्मा के विराट रूप का दर्शन कर सकते हैं । अर्जुन ने जब उस विराट रूप को देखा ,तब वह बड़े ही सुंदर शब्दों में भगवान की स्तुति भी करने लगा ।
विश्वरूप को देखकर अर्जुन कहता है:
भगवन ! तुम में बस रहा ,प्राणी-मात्र समाज
दिखे तुम्हारी देह में , सभी देवता आज
देख रहा आसन-कमल , ब्रह्मा को आसीन
नाग दिव्य ऋषि गण दिखे ,देख-देख मन लीन
11/15
करते देखे जा रहे , हाथ जोड़ जयकार
कर प्रवेश तुम में रहे ,सुर के झुंड अपार
कहते स्वस्ति महर्षिगण ,सिद्ध संघ आभार
मंत्र प्रशंसा से भरे , गाते बारंबार 11/21
अर्जुन विश्व पुरुष की स्तुति गीता में अत्यंत भावमय होकर करता है। वह विश्वपुरुष जो संसार का स्वामी है ,समस्त सृष्टि का मूल आधार है । अर्जुन कहता है :
आदि पुरुष संसार के ,जग पाता विश्राम
सर्वप्रथम तुम देवता ,ज्ञाता ज्ञेय प्रणाम
तुम सर्वोत्तम लक्ष्य हो ,रखते रूप अनंत
व्याप्त तुम्हीं ने जग किया ,नमन नमन भगवंत
11/38
नमन नमन तुमको प्रभो ,नमन हजारों बार
परम प्रजापति हे पिता , वंदन बारंबार
अग्नि वायु पावन वरुण ,तुम ही हो यमराज
तुम्हें नमन हे चंद्रमा , नभ मे रहे विराज
11/39
शक्ति असीमित बल भरे ,प्रभु तुम अपरंपार
सबके भीतर रम रहे ,सब में तुम साकार
आगे से तुमको नमन ,पीछे से शत बार
हे सब कुछ हर ओर से ,करो नमन स्वीकार
11/40
गीता का उद्देश्य केवल आत्मा और परमात्मा का बोध करा देना या शरीर की क्षण-भंगुरता को बताना मात्र नहीं है । श्रेष्ठ मनुष्य का निर्माण तो उन गुणों को आत्मसात करने से ही हो सकता है ,जो गुण मनुष्य को कतिपय नैतिक मूल्यों से भर देते हैं । उसके भीतर मनुष्यता को विकसित करते हैं और वह एक अच्छा मनुष्य बन पाता है । एक अच्छा मनुष्य ही अच्छे समाज का निर्माता होता है । एक अच्छे मनुष्य के माध्यम से ही एक अच्छी शासन-सत्ता की स्थापना होती है और वह अच्छा मनुष्य अपनी भूमिका को चाहे जहाँ रहकर निभाए, उसका कार्य समाज को श्रेष्ठ बनाने में महत्वपूर्ण योगदान देता है । जहाँ तक आत्मा का प्रश्न है ,उसको जाना जा सकता है लेकिन उसके लिए भी तो योगमय व्यक्तित्व ही चाहिए ।
तन में रहती या गई ,आत्मा से अनभिज्ञ
मुढ़ न किंचित जानते ,ज्ञानी जानें विज्ञ
15/10
योगी करते यत्न हैं , आत्मा लेते जान
उच्छ्रंखल जन मूढ़ को ,नहीं यत्न से ज्ञान
15/11
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दैवी और आसुरी भाव
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तीन प्रकार के व्यक्ति संसार में होते हैं। सतोगुणी ,रजोगुणी और तमोगुणी । गीता इन तीनों प्रकार की प्रवृत्तियों का विस्तार से वर्णन करती है । वह दैवी और आसुरी भाव को विशेष रुप से दर्शाती है । अर्जुन दैवी भाव से संयुक्त है । इस दैवी भाव की विशेषताएँ गीता बताती है । गीता का अभिप्राय ऐसे मनुष्य का निर्माण है ,जिसके भीतर दैवी भाव विद्यमान हो । यह दैवी भाव सद्गुणों का भंडार है और इसे जीवन में अपनाकर ही व्यक्ति अपने परम लक्ष्य ईश्वर की प्राप्ति की ओर अग्रसर हो सकता है ।
दैवी भाव की तुलना में एक आसुरी भाव भी है । यह संसार को कष्ट पहुंचाने वाले, प्रताड़ित करने वाले तथा अहंकार में डूबे हुए व्यक्तियों की प्रवृत्ति है। गीता इन तुच्छ आसुरी प्रवृत्तियों के जीवन में अपनाने का निषेध करती है और एक अच्छे समाज के लिए हमें प्रेरणा देती है ।
निर्भयता मन-शुद्धता , खुद पर संयम दान
योग यज्ञ तप अध्ययन ,आर्जव दृढ़ता ज्ञान
लज्जा मृदुता सत्यता ,दया शांति अक्रोध
त्याग अचंचलता दया , अत्याचार-विरोध
तेज क्षमा धृति शौच है ,दैवी भाव प्रधान
गुण हैं यह उस व्यक्ति के ,नहीं द्वेष-अभिमान
16/ 1,2,3
आसुर क्रूर मनुष्य हैं ,करते सिर्फ विनाश
अल्प बुद्धि नष्टात्मा, लिए क्रूरता पाश
16/9
बाँधे जिनको लालसा, काम क्रोध अन्याय
करते संग्रह अर्थ का , जो भी मिले उपाय
16/12
दर्प अहम् मन में भरे ,काम क्रोध आधीन
तन को केवल चाहते ,नहीं आत्म मे लीन
16/18
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तीन प्रकार के भोजन
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केवल अच्छी-अच्छी बातों से ही कार्य नहीं चल सकता । उसके लिए भोजन भी सात्विक मानसिकता के अनुसार व्यक्ति को ग्रहण करने चाहिए । तभी तो शरीर स्वस्थ बनेगा और मस्तिष्क प्रबल हो सकेगा। इसलिए गीता तीन प्रकार के भोजन के बारे में विस्तार से बताती है । यह भोजन सात्विक ,राजसिक और तामसिक मनोवृत्तियों के परिचायक हैं ।
बढ़ा रहे बल स्वास्थ्य को ,बसता है आनंद
सात्विक को चिकने मधुर ,पोषक भरे अमंद
खट्टे तीखे चटपटे ,रूखे या नमकीन
उनको खाते राजसी ,हुए शोक में लीन
बिगड़ा भोजन सड़ गया ,वाणी हो बेस्वाद
तामस उनको चाहता ,रखना यह ही याद
17/ 8 , 9, 10
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सात्विक दान सर्वश्रेष्ठ
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दान की महिमा अपरंपार है । लेकिन सब प्रकार के दान एक समान नहीं कहे जा सकते । दान के साथ भी अलग-अलग प्रकार की मानसिकता जुड़ी होती है । गीता दान को भी तीन कोटि में बाँटती है । सात्विक दान सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है। यह दान व्यक्ति में सुधार लाता है, उसे परिष्कृत करता है तथा उच्च बनाता है । सात्विक दान से समाज को लाभ पहुंचता है । राजसिक और तामसिक दान दूसरे और तीसरे दर्जे के माने जाते हैं । इनके साथ अनेक प्रकार का अभिमान तथा तुच्छ प्रवृतियाँ जुड़ी होती हैं। गीता सात्विक मनुष्य के निर्माण की आकांक्षी है । स्वाभाविक है कि वह सात्विक दान की अभिलाषा श्रेष्ठ मनुष्य से करती है।
उचित जगह पर देख कर ,समुचित काल सुपात्र
दान बिना आशा किए ,सात्विक है वह मात्र
दान सुनो वह राजसी जिसमें भीतर क्लेश
प्रतिफल की आशा छिपी ,छिपा लाभ परिवेश
गलत व्यक्ति को जो दिया ,बिना मान-सम्मान
कहलाया वह तामसिक ,गलत समय पर दान
17 / 20 , 21 , 22
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चार प्रकार की वर्णों की व्यवस्था
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समाज में चार प्रकार के मनुष्य पाए जाते हैं। इन चार प्रकार के मनुष्यों का विभाजन गीता कर्म के आधार पर इस प्रकार करती है कि वह चार वर्णों में बँट जाते हैं । इन्हें गीता ब्राह्मण ,क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र के वर्ण-नाम से पुकारती है। चारों की अलग-अलग गतिविधियाँ हैं । उनके अलग-अलग कार्य हैं। समग्रता में वह एक श्रेष्ठ समाज का निर्माण करते हैं । गीता का मूल अभिप्राय चार वर्णों की व्यवस्था को बताना मात्र नहीं है । वह मूलतः कहना यह चाहती है कि किसी भी वर्ण का कार्य छोटा या बड़ा नहीं होता । अपने अपने कार्य के द्वारा सबका समाज निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान है। अपने कार्य को निपुणता से करने से सब लोग समाज की भली प्रकार से भलाई कर सकेंगे । चार वर्णों की व्यवस्था कर्म पर आधारित है ।
गतिविधियाँ होतीं अलग ,गुण स्वभाव अनुसार
जन ब्राह्मण क्षत्रिय हुए ,शूद्र वैश्य कुल चार
शम दम तप आर्जव क्षमा ,शुचिता श्रद्धा ज्ञान
ब्राह्मण के भीतर बसे ,धर्म और विज्ञान
शौर्य तेज धृति युद्धप्रिय ,दानी अग्र स्वभाव
सूझबूझ से है भरा , क्षत्रिय का यह चाव
कृषि गौरक्षा वाणिकी ,वैश्य स्वभाविक कर्म
सेवा-मूलक जानिए , कर्म शूद्र का मर्म
सबको मिलती शुद्धि है ,करते अपना काम
कर्तव्यों में जो लगे , उनको कोटि प्रणाम
18 / 41 , 42 , 43 , 44,45
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योगमय चेतना से युक्त योद्धाभाव ~~~~~~~~~~~~~~~~
अंत में गीता जीवन के रण में विजय का मूल मंत्र 18वें अध्याय के आखरी श्लोक के द्वारा हमारे सामने प्रस्तुत करती है । इसका अर्थ अर्जुन के समान सब प्रकार के भ्रम और उहापोह से मुक्त होकर समर्पित भाव से युद्ध में कूद पड़ना है । एक ऐसा योद्धा बनाना गीता का उद्देश्य है ,जो सद्गुणों को हृदय में बसाए हुए है। शरीर की नश्वरता का जिसे बोध है । आत्मा की अमरता का सत्य जो जान चुका है तथा सृष्टि के स्वामी निराकार परमात्मा का रहस्य जिसकी आँखों के सामने प्रकट हो चुका है । ऐसा व्यक्ति चेतना से संपन्न होता है तथा इस व्यक्ति के द्वारा ही कृष्ण जानते हैं कि महाभारत को जीता जा सकता है ।
धनुष लिए अर्जुन जहाँ, योगेश्वर भगवान
नीति विजय कल्याण श्री ,वहाँ उपस्थित मान
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लेखक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451