संदेसा
संदेसा
मुँह अंधेरे ही
मेरे घर के मुँडेर पर
गुंटर गू,गुंटर गू
कर रहा था एक कबूतर।
सोचा मैंने,
सजनी ने भेजा है, शायद
मेरे प्रश्नों का उत्तर।
निकलकर बाहर मैंने,
ज्योहीं, मुँडेर को झाँका।
कंकड़ समेत कबूतर वह
कुछ आँका
फिर भागा।
भागता ही गया उत्तरोत्तर।
हाथ मलता मैं रह गया।
अंदर ही अंदर
पिघलता मैं रह गया।
-©नवल किशोर सिंह