संत साईं बाबा
आपा-पर सब दूरि करि, रामनाम रस लागि।
दादू औसर जात है, जागि सके तो जागि।। —सन्त दादू
सन्त चरित्र के चिंतन और स्मरण की अलौकिकता-दिव्यता भवसागर से पार उतरने की तरणी है। सन्त चरण की एक धूलि कणिका कोटि-कोटि गंगा से भी नही तौली जा सकती है। जिस प्राणी पर सन्त की कृपा-दृष्टि अनायास पड़ जाती है। उसके जन्म-जन्मान्तर के पापो का क्षय हो जाता है, पुण्य की समृद्धि बड़ जाती है। साईं बाबा एक ऐसे ही सन्त थे जिन्होने अभी कुछ ही समय पहले पृथ्वी पर उतर कर अपनी अलौकिक चरित्रलीला, विमल चरणधूलि-कणिका और दिव्य कृपा से असंख्य प्राणियों को परमात्मा का प्रकाश प्रदान किया। आत्मतत्व का साक्षात्कार कराया और अध्यात्म राज्य की स्थापना की। जिस समय भारत अपनी स्वाधीनता की पहली लडाई अग्रेजी शक्ति के विरुद्ध लड़ रहा था, बिठूर, झाँसी, लखनऊ और दिल्ली तथा बरेली में स्वदेशी सैनिक शक्ति स्वधर्म, स्वदेश और स्वराज्य के लिये नानासाहब, महारानी लक्ष्मीबाई, हजरत महल, बहादुरशाह और बखत खान की अध्यक्षता में अग्रेजो को लोहे के चने चबवा रही थी, उस समय साईं बाबा का एक बहुत बड़े जनसमूह को सत्य, शान्ति और प्रेम का सन्देश देने के लिये, भगवद्भक्ति और आत्मज्ञान से सम्पन्न करने के लिये प्राकट्य हुआ। उन्होने शुद्ध आध्यात्मिक शक्ति का विजय-केतन फहराया। सत्य, शान्ति और तप ही उनके अस्त्र-शस्त्र थे।
अपने अनुयायियों में वे दत्तात्रेय के अवतार के रूप में प्रसिद्ध हुए। वे सदा त्याग के उच्चातिउच्च शिखर पर ही निवास करते थे। महादानी थे, दिन में जो कुछ भी मिलता था उसे साधु-सन्तो और असहाय तथा दीन-दुखियो की सेवा में लगा कर दूसरे दिन फिर महाभिक्षुक के रूप में दीख पड़ते थे।
हिन्दू, मुसलमान, पारसी, ईसाई सबके सब उनमें श्रद्धा रखते थे और उनके चरणधूल-कण से पवित्र होने में अपना सौभाग्य मानते थे। ऋद्धि-सिद्धि सदा उनके पैर चूमती थी। पर वे कभी उनकी ओर तनिक भी ध्यान नही देते थे। सदा सहज समाधि में निमन्न रह कर परमात्मा का स्मरण करते रहना ही उनका जीवन बन गया था काम, कामिनी और कांचन तीनो पर उन्होने पूर्ण विजय प्राप्त कर ली थी। वे सत्य तत्व के परम ज्ञाता थे, दार्शनिक संत थे। परम पवित्र भगवती गोदावरी नदी के तट पर, अहमदनगर जनपद के पथरी ग्राम में सम्वत् १९१३ वि. मे एक ब्राह्मण कुल मे संत साईबाबा ने जन्म लिया था। दैवयोग से पालन-पोषण के लिये उनको एक फकीर के हाथ में सौंप दिया गया। बाल्यावस्था से ही वे बडे विनम्र, कोमल और मधुर स्वभाव के थे। उन्हें देख कर लोग कह पड़ते थे कि भविष्य में ये बहुत बड़े महात्मा होगे । सन्त का बचपन भी दिव्य और चमत्कारपूर्ण होता है। साई बाबा के गुरु का नाम वेंकुसा कहा जाता है। बाल्यावस्था में वे अपने गुरु के साथ चावडी में निवास कर बड़ी श्रद्धा और भक्ति से उनकी सेवा करते थे। उनकी दृढ मान्यता थी कि गुरु में श्रद्धा और विश्वास रखने से समस्त पाप मिट जाते है। वे कहा करते थे कि ब्रह्म मेरा पिता है, माया मेरी माता है तथा जगत् ही मेरा म है। गुरु के समाधि लेने पर साईं ने अज्ञातवास का निश्चय किया, उस समय उनकी अवस्था केवल सोलह साल की थी। उन दिनो शिरडी में देवदास नाम के एक साधु की बडी प्रतिद्धि थी। चाँदभाई के साथ बड़े आग्रह के बाद वे शिरडी आकर महात्मा देवदास के साथ रहने लगे। साई का रूप देखकर लोग उनकी ओर आकृष्ट हो गये। उनकी प्रसिद्धि सुन कर दूर-दूर से संत जन उनका दर्शन करने के लिये आने लगे। नित्य प्रति सत्संग होने लगा । शिरडी में सन्त साई बाबा के निवास से भक्ति और ज्ञान तथा प्रेम की गंगा, सरस्वती और कालिन्दी का संगम उतर आया। वातावरण आध्यात्मिक दिव्यता से परिपूर्ण हो उठा। वे ‘शिरडी के संत’ के नाम ने प्रसिद्ध हो गए।
शिरडी में साईबाबा तप करने लगे। शिरडी आगमन के सम्बन्ध में एक विशेष घटना का उल्लेख आवश्यक प्रतीत होता है। चावड़ी मे गुरु समाधिस्थ होने पर साईं बाबा ने अज्ञातवास का व्रत लिया था। धुपकेड़ा ग्राम के पटेल चाँदभाई का घोडा दो माह से अदृश्य था, उसका कहीं भी पता नहीं लग रहा था। योग से चांदभाई को साईं बाबा ने बतला दिया कि घोड़ा अमुक स्थान पर मिलेगा। उनकी बात ठीक निकली, उन्होने इसी प्रकार कुछ और चमत्कार दिखाये, चांदभाई उनके चमत्कार से मुग्ध हो गये और बाबा को शिरडी ले आये। साईं बाबा शिरडी में एक मसजिद में रह कर भगवान का भजन करने लगे। मसजिद का नाम उन्होने द्वारिकामाई रखा था, वे भिक्षा से भोजन का प्रबन्ध करते थे, भिक्षा मांगना तथा दिन भर मसजिद के सामने आम के वृक्ष के नीचे बैठ कर भगवान का भजन करना ही उनका काम था। वे दाढी रखते थे, चीथडे पहनते थे। त्यागवृत्ति से जीवन-निर्वाह करते थे। दिन-प्रतिदिन सत्संगियों और दर्शको की भीड़ बढती गयी। उनकी धूनी की राख पाते ही बीमार अच्छे हो जाते थे, असहाय और गरीबो की दरिद्रता दूर हो जाती थी । इस प्रकार उनका प्रताप चारो ओर बड़ने लगा। शिरडी तथा अड़ोस पड़ोस के लोग उन्हे सनकी और पागल समझते थे। पर साईं बाबा अबाध गति से अपनी आत्मसाधना और भगवद् भजन में तल्लीन रहते थे। एक दिन की विचित्र घटना से शिरडी वाले उनके चरणो पर नत होकर उनके सत्यसन्देश के दूत बन गये। दीपक जलाने के लिये तेल नही था। बाबा ने तेल माँगा तो शिरडी के निवासियो ने देना अस्वीकार कर दिया । साईं बाबा ने तेल के बदले पानी से चिराग जलाया और शिरडी के नागरिको को आश्चर्यचकित होना पड़ा। चिराग पानी के सहारे रात भर जलता रहा। दूसरे दिन प्रात: काल मसजिद में बहुत बड़ी भीड़ एकत्र हो गयी। लोगो ने बाबा के चरण में मस्तक नत कर क्षमा-याचना की, कहा कि महाराज, हमें आप की शक्ति का तनिक भी पता नही था। आप संत शिरोमणि हैं, आप के प्रति अपराध कर हम लोगो ने महापाप किया है, हम आप के शरणागत है, हमें अपना लीजिये । बाबा मन्द-मन्द मुसकराने लगे, उनके नयनो से शीतल कृपा की ज्योति निकलने लगी। बाबा ने अपने प्रेमियों और भक्तो को शिक्षा दी कि अपने-अपने धर्म के अनुकूल आचरण कर भगवान के भजन में निरंतर लगे रहना ही क्षणभंगुर संसार में जन्म लेने का पुण्यफल है। भागवत शास्त्र में बाबा की बड़ी अनुरक्ति थी, वे अपने बहुत से अनुयायियों को भागवत तथा अन्य भक्तिपरक शास्त्र पढने का समय-समय पर आदेश देते रहते थे। वे मसजिद में एकान्त में योगाभ्यास किया करते थे । उन्होने बहुत दिनों तक देह से अलग रहने का अभ्यास किया। विशेष अवसरो पर साईं बाबा अपनी यौगिक सिद्धि से लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया करते थे। बीमारों को ‘हरि हरि’ उच्चारण का आदेश दिया करते थे और स्मरणीय बात तो यह है कि ऐसा करने से बड़ी से बड़ी बीमारी चली जाती थी और ‘हरि हरि उच्चारण करने वाले पूर्ण रूप से स्वस्थ हो जाते थे ।
जल तत्व पर साईं बाबा का पूरा-पूरा नियन्त्रण था। अपनी सिद्धि के बल से वे बड़ी से बड़ी जलवृष्टि को रोक देते थे। एक बार शिरडी में जोर की जल-वृष्टि होने लगी, हवा बड़े वेग से चलने लगी, और बिजली के कड़कने और चमकने से लोगों का धैर्य नौ-दो-ग्यारह होने लगा। लोग थरथर कापने लगे। बाबा उस समय मसजिद में ही थे। लोगो ने सोचा कि बाबा के शरणागत होने पर ही प्राण की रक्षा हो सकेगी। वे पशुओ को साथ लेकर मसजिद में पहुँच गये। बाबा से प्रार्थना की ‘महाराज, हमारे प्राणो की रक्षा कीजिये।’ सन्त तो सहज ही कृपालु होते हैं। साईं बाबा से लोगो का दुख न देखा गया। वे मसजिद से बाहर आकर खड़े हो गये, आसमान की ओर देखने लगे। थोड़ी ही देर में बाबा की कृपा-दृष्टि से जल-वृष्टि बन्द हो गयी। लोग ‘साईं बाबा की जय’ बोलते-बोलते अपने-अपने घर आये।
एक बार एक व्यक्ति के साथ शिरडी में एक डॉक्टर आये। उस व्यक्ति ने डॉक्टर महोदय को बाबा की महिमा बतायी और दर्शन के लिये चलने का आग्रह किया। डॉक्टर ब्राह्मण थे, वे ब्राह्मणोचित आचार, विचार से रहते थे। उन्होने बाबा के पास जाकर उनके पैरो पर पड़ना अस्वीकार कर दिया। उनको उस व्यक्ति ने बताया कि बाबा न तो किसी व्यक्ति को पैर पकड़ने का आदेश देते है और न उनकी ऐसी इच्छा ही है कि कोई पैर पकड़े। डॉक्टर भगवान रामचन्द्र के भक्त थे। उस व्यक्ति के साथ वे साईं बाबा के दर्शन के लिये द्वारिकामाई – मसजिद मे गये। बाबा ने उनको भगवान राम के रूप में दर्शन दिया। डॉक्टर महोदय ने साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया और बाबा के उपदेशो से अपना समय सफल किया।
साकोरी के सन्त उपासनी महाराज पर साईं बाबा की बड़ी कृपा थी। ऐसा लगता है कि उपासनी महाराज ने साईं बाबा की सेवा के ही लिये जन्म लिया था और साईं बाबा ने पूर्ण अखण्ड अध्यात्म ज्ञान और भगवद् भक्ति से उपासनी महाराज को सम्पन्न करने के ही लिये शिरडी में तपस्या की थी। उपासनी महाराज ने शिरडी में आकर बाबा का दर्शन किया पर उनका मन एक मुसलिम सन्त के संरक्षण में रहने के लिये प्रस्तुत नहीं था। उन्होंने बाबा से कहा कि मैं जाना चाहता हूँ, बाबा ने प्रसन्नतापूर्वक जाने की आज्ञा दे दी पर साथ-ही-साथ यह भी कहा कि तुम आठ दिनो के बाद चले आना । उपासनी महाराज लौट कर शिरडी नही जाना चाहते थे पर उनके मन को कोई आन्तरिक शक्ति नियत समय पर शिरडी पहुंचने के लिये प्रेरित कर रही थी। बाबा की योग-शक्ति ने उनको अपने चरणो में उपस्थित होने के लिये विवश किया। साईं बाबा ने उनके शिरडी पहुँचने पर आज्ञा दी कि तुम श्मशान भूमि के निकट खण्डोबा मन्दिर में निवास कर साधना करते रहो, आत्मसाक्षात्कार में चार साल का समय लगेगा, उसके बाद तुम सिद्ध महात्मा हो जाओगे। उपासनी महाराज ने गुरु की आज्ञा का पालन किया। वे शिरडी में खण्डोबा के जीर्ण-शीर्ण प्राचीन मन्दिर में निवास कर एकान्त में तप करने लगे और चार साल के बाद एक बहुत बड़े महात्मा के रूप में प्रसिद्ध हुए। साईंबाबा ने उन्हें आत्मसाक्षात्कार प्रदान किया ।
उपासनी महाराज की खण्डोबा मन्दिर के निवास काल में कई बार साईं बाबा ने परीक्षा ली थी। उन्होने उपासनी महाराज को बताया कि गुरु और ईश्वर दोनो अभेद है, अभिन्न हैं, गुरु के चरणो में श्रद्धा और विश्वास रखने पर ईश्वर की कृपा और भक्ति मिलती है।
एक बार खण्डोबा मन्दिर से उपासनी महाराज मसजिद – द्वारकामाई में अपने गुरुदेव से मिलने गये । साईं बाबा चिलम पीते थे, उन्होने उपासनी महाराज को चिलम पीने का आदेश दिया और पूछा कि क्या तुम्हारे पास मन्दिर मे कोई जाता है ? महाराज ने ‘नहीं’ उत्तर दिया। ‘अच्छा, तो मैं एक दिन आऊँगा। क्या तुम मुझे चिलम पिलाओगे?” साईं ने कहा। उपासनी मन्दिर में चले गये। उन्होने भोजन बनाया और थाली मे रख कर अपने गुरुदेव को समर्पित करने के लिये द्वारिका माई की ओर चल पडे । मन्दिर के निकट एक काला कुत्ता था । उपासनी महाराज ने सोचा था कि पहले गुरुदेव को भोजन दे आऊँ, उसके बाद कुत्ते को खिला दूँगा । पर रास्ते में उनका मन बदल गया । वे मन्दिर की ओर जाना चाहते थे पर कुत्ता अदृश्य हो गया।
बाबा ने कहा, ‘तुम धूप में क्यों आ गये? मैं तो मन्दिर के सामने ही प्रतीक्षा कर रहा था।
उपासनी महाराज को कुत्ते वाली बात स्मरण हो आई, वे पछताने लगे।
‘ मैं कुत्ते के वेश में तुम्हारी परीक्षा ले रहा था।’ बाबा ने समाधान किया ।
दूसरे दिन उपासनी महाराज ने मसजिद में बाबा के पास भोजन ले जाते समय मन्दिर के निकट एक शूद्र भिखारी को देखा पर पहचान न सके कि साईं बाबा उनकी परीक्षा के लिये उपस्थित है।
बाबा ने बताया कि शूद्र के वेष में मैं ही प्रतीक्षा कर रहा था। ‘घट-घट में एक ही परमात्मा का निवास है, प्राणीमात्र में आत्मानुभूति ही परमात्मा की प्राप्ति का साधन है।’ उन्होने कहा कि ‘कण-कण में मेरी आत्मा की ही चेतनसत्ता परिव्याप्त है। इसका अनुभव करना ही परमात्मा का भजन है।’ बाबा अपने शिष्यो और सत्संगियों से कहा करते थे कि जो मसजिद द्वारिका माई की सीढी पर पैर रख देता है वह मेरे ही समान है, मुझमें और उसमे कुछ भी भेद नहीं रह जाता है। मेरे पास आने वाले को जो दुःख देता है वह मुझे ही दुःख देता है, उन्हे जो सुख पहुंचाता है वह मुझे ही सुख देता है।
साई बाबा अपने अनुयायियों पर समान रूप से कृपा-दृष्टि रखते थे, विश्व-प्रेम और लोक-कल्याण की सीख देते थे। सत्यानुराग ओर लोक कल्याण उनके उपदेशो में भरे पड़े है । उनके सिद्धान्त और भगवतचिंतन की पद्धति अत्यन्त रहस्यपूर्ण है, उनके विचारों को समझना अमित कठिन है, उनकी कृपा से ही उनकी बातें समझ में आती हैं तो आ जाती है, उनके अनुयायियो ने उनकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करने में तत्परता दिखायी। साईंबाबा अखण्ड जाग्रत, पूर्ण सावधान तथा अविकल रूप से प्रेम मग्न हो कर भगवान के भजन में लगे रहते थे। भगवन्नाम में उनकी बडी आस्था थी । सत्य-स्वरूप परमेश्वर के नाम में श्रद्धा अभिव्यक्त कर उन्होने संतमत की सनातन परम्परा अक्षुण्ण रखी। ‘ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म हो जाता है’ इस वेदान्तप्रतिपाद्य सत्य को उन्होंने अपने जीवन में सम्पूर्ण रूप से चरितार्थ किया। उन्होंने सच्चिदानंद की अनुभूति की । सदाचार पर साईं बाबा विशेष जोर देते थे, सदाचार को आत्म साधना अथवा भगवान की उपासना का वे बहुत बड़ा अंग स्वीकार करते थे ।
मुसलमान उन्हें उच्च कोटि का औलिया और हिन्दू महान संत मानकर उनकी पूजा करते थे । वे कहा करते थे कि भिन्न भिन्न धर्मों के प्रति सदा नम्रता का भाव रखना चाहिये। समस्त विश्व ही उनके शरीर के लिये एक मन्दिर था। वे भक्तो के दुख अपने-आप भोग लिया करते थे। भक्त और शिष्य उनसे दर्शन देने की प्रार्थना करते तो बाबा कहा करते थे कि मैं तो तुम्हारे ही दर्शन से ईश्वर की कृपा से कृतार्थ हो गया। बाबा को अन्नपूर्णा की सिद्धि थी। वे वाक्सिद्ध महात्मा थे।
शिरडी में ही बाबा अन्तिम समय तक रहे। विजयादशमी उनके जीवन की अन्तिम तिथि थी। सम्वत् १९७५ वि. में अद्वैतावस्था में स्वरूपगत ब्रह्म का चिंतन करते हुए उन्होने परम गति प्राप्त की। समाधिस्य होने के बाद भी विशेष भक्तो को वे सदेह दर्शन देते रहते हैं और कुसमय में उनकी सहायता करते रहते है। साईं बाबा परदुःखभंजन थे। वे निरपेक्ष और निष्पक्ष सन्त थे । शिरडी में हजारों की संख्या में उनके अनुयायी और भक्त लोग प्रत्येक दशहरा और दीवाली को एकत्र होकर बाबा की समाधि पर श्रद्धाञ्जलि समर्पित करते हैं।
((रचना))
‘साईं वाक्सुधा’ में उनके अनेक उपदेश और वचन संग्रहीत हैं।
((वाणी))
★. रात-दिन ईश्वर का नाम लेते रहना ही सब से बड़ी साधना है। नाम रत्न को पाने वालो ने सदा उसे छिपा कर ही रखा।
★. बुद्धि से ईश्वर को पहचानना चाहिये। ईश्वर ही गरीबो के रक्षक हैं, उनके सिवा गरीबो का दूसरा कोई है ही नही।
★. जिस प्रकार ईश्वर रखते हैं उसी प्रकार रहना चाहिये। भले की भलाई भले के पास और बुरे की बुराई बुरे के पास रहती है।
★. एक बार सद्गुरु के हाथ में जीवन की डोरी सौंप देने पर चिंता की बात नही रह जाती है। सब कुछ ईश्वर ही ईश्वर है।
★. गरीबी-दैन्य बादशाही है। गरीबो के भाई भगवान हैं–ऐसा मेरा वचन हैं।