संतोष
विश्वास की धरा पर,
सत्कर्म का बीज बोया तो।
निष्काम कर्म जल से,
सींच सींच कर पौधा उगाया।
वह है संतोष वह है संतोष।।
इच्छायें आकाश की भांति अनंत हैं।
जो कभी न होगी पूरी
तुष्ट करते करते आंखे हो जायेंगी बूढ़ी।।
आंखों के सामने छाया है अंधियारा।
जीवन से अब मानव जीवन हारा।।
सूखी लकड़ी वाले हवन कुण्ड में
ज्यों ही घी पड़ता है।
आग और भी प्रज्जवलित हो उठती है।
इच्छाएं वैसे ही बढ़ती जाती है।।