संडे की व्यथा
शीर्षक – संडे की व्यथा
परिचय – ज्ञानीचोर
शोधार्थी व कवि साहित्यकार
मु.पो. रघुनाथगढ़, सीकर राज.
पिन 332027
मो. 9001321438
आदमी शादीशुदा हो या
चाहे थोड़ा कुँवारा हो…!
वो जो सोचता है वो ही जाने
पर होती है इतनी सी बात
सबकुछ कर लेने और …..
बहुत कुछ समेट लेने के चक्कर में
भूल जाता है एक प्यारा अहसास
जो ताकता है निगाहें किनारें से
आँखों की नम कोर
भूल जाता है ये बात नहीं
ये दोष आदमी का नहीं
संडे है ही खुशी का दिन
लेकिन आजतक तो खुश
आदमी हुआ हो
ऐसा नहीं लगता
जिंदगी के सारे काम एकत्र
हो जाते है एक दिन ही।
नहीं दे पाता समय।
कैलेंडर में गड़बड़ी है आजकल
संडे नहीं आता देर से
ज्योहीं सप्ताह के तीन दिन गये
टपक आता है संडे शीघ्र
और काम की भीड़ में
खो जाता है आदमी
नहीं मिलता आराम
आराम के नाम पर आया
सरकारी छुट्टी का संडे
पर आराम तो वर्कडे में ही
संडे को बदलना होगा
कैलेंडर का करेक्शन करना होगा
नाम देना होगा दूसरा
शायद मिल जाये फुर्सत इसी बहाने
आदमी से आदमी कर सके
थोड़ा गिला सिकवा
बतला सके प्यार के बोल
तर हो सके टुकड़ा दिल का
भावनाओं का मेल हो सके
जी सके क्षण भर अपने में
पूछ सके कुशलता अपनों की
छः दिन की उदासी तोड़ सके
पर छः उदासी में संडे घोलता है
सबसे ज्यादा उपेक्षा,तिरस्कार
मन को झकझोरता है संडे
दुनिया की बड़ी आबादी है त्रस्त
संडे के फंडे से सालों से
जब तक संडे है कामकाजी आदमी
नहीं रह सकेगा खुश
न कर सकेगा खुश अपनों को
एकत्र काम की पीड़ा
संडे की सबसे बड़ी व्यथा है।