संजय सनातन की कविता संग्रह गुल्लक
काश,मेरे पास
कोई गुल्लक होता
जिसमें हसीन लम्हों को
जमा रख पाता।
गुल्लक एक अरमान है,जो हमें संचय करने की सीख देती है और इसका एक दिन किसी विशेष परिस्थिति में टूट जाना या इसे तोड़ दिया जाना गुल्लक के स्वामी के लिये प्रसव वेदना से कम नहीं है,लेकिन टूटने के बाद बाहर निकले संचित धन को देखना भी पहली बार संतान को देखने जैसी सुखद अनुभूति से कहाँ कम है।
गुल्लक टूट गया,गुल्लक फूट गया और कविता के रुप में स्वर्णिम सिक्के बाहर आ गये। “गुल्लक” दीक्षा प्रकाशन,दिल्ली द्वारा प्रकाशित संजय सनातन की प्रथम काव्य संग्रह है। संजय सनातन पूर्व से ही सोशल मीडिया पर अपनी साहित्यिक विधा के साथ जीवंत उपस्थिति का बराबर अहसास कराते रहे हैं,जिसके कारण इनकी लेखनी में स्थिरता और प्रौढ़ता नजर आती है।पहली कविता से अन्तिम कविता कवि के यौवन काल के प्रारंभ से लेकर वर्त्तमान उम्र तक का यात्रा वृत्तांत है।पुस्तक की हर अगली कविता कवि का आम जिंदगी को करीब से देखने का तथा मानवीय संवेदना और मूल्यों को अवलोकन करती नजर आती है।समाज के अन्तिम पायदान पर खड़ा व्यक्ति भी कवि की सूक्ष्मदर्शी नजर से मुँह नहीं चुरा सकता है।कवि के समदर्शी भाव ने विभिन्न प्रकृति के पात्रों को एक सामूहिक मंच पर एक साथ खड़ा कर अपने शब्दों को मूर्त्त रुप देने का प्रयास किया है।इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि पुस्तक की भाषा सरल और सुगम है जो सरलता से अन्दर तक पहुँच कर मन को झंकृत करती है।इसलिये ‘उदाहरण’ कविता में स्पष्ट घोषणा है कि
लेकिन आप हमें
अनदेखा नहीं कर सकते।
“तुम्हें छलांग नहीं लगाना था कम्मो” में कवि का दर्द छलकता है।
कभी पुल को किसी ने
नदी में छलांग लगाते नहीं सुना।
जहाँ “बाजार” कविता बढ़ती महँगाई पर चोट है।खास कर मध्यम वर्ग के लोगों की महँगाई के साथ संतुलन बनाये रखने की कठिनता को दर्शाता है।
सारा बाजार
मेरी नपुंसकता पर
हँस रहा था
सरे बाजार मेरी इज्जत उतर गयी थी।
वहीं दूसरी ओर “उम्मीद का सूरज” भविष्य के प्रति आशा का भाव जगाता प्रतीत होता है।
उम्मीद का सूरज अभी डूबा नहीं था
उसे पक्का यकीन था
कील पहिये का साथ नहीं छोड़ेगा
और बैल जुए से इंकार नहीं करेगा।
एक उदास कुदाल,धान रोपती औरतें,वो जरना बिछनेवालियाँ,गोयठा ठोकती औरतें जैसी कविताएं आधुनिकता के चकाचौंध में भी अपनी वास्तविकता और संस्कृति को संरक्षित करने का संदेश देती है।
यकीन है उन्हें
जब सारे मशहूर चेहरे
दागदार हो जाएंगे
तब यही देहाती
मनहूस चेहरे
हुश्न के नये
प्रतिमान गढ़ेंगे।
“पोस्टमार्टम” कविता पोस्टमार्टम में सहायता करने वाले सहायक का अंदर तक पड़ताल कर लेती है।
लेकिन आपलोग भूल बैठते हैं कि
आखिर कलेसरा डोम को दिल भी तो है
जो अद्धा लेने के बाद भी
धड़कता ही रह जाता है।
“भीड़” कविता बढ़ती जनसंख्या, राजनैतिक महत्वाकांक्षा और असुरक्षा का भय पर तंज कसती नजर आती है।
इस रस्साकशी में
अपना देश कशमशा रहा है
तनी हुई गुलेल की तरह
उसके ललाट की नसें फटी जा रही है।
निस्संदेह पुस्तक की अधिकांश कविता ग्रामीण जीवन के यथार्थ और मिट्टी के महक की अनुभूति के संग पाठकों से सीधा संवाद करती है।ठेठ देहाती शब्दों का प्रयोग मन में हलचल पैदा करने के साथ कविता से अपनापन का अहसास कराता है।शायद ही कोई पाठक कवि के दार्शनिक भावों में सरोवार न हो पाये।पुस्तक की भूमिका श्री गौरीशंकर सिंह पूर्वोत्तरी जी के द्वारा लिखी गयी है जो प्रभावशाली ढ़ंग से पुस्तक की दशा और दिशा दोनों पर संतुलन बनाये रखने में सक्षम है। मेरी हार्दिक शुभकामना है कि संजय सनातन इसी तरह लिखते रहें और निर्बाध रुप से साहित्य का सृजन करते रहें।