संघर्ष
जब ,
गहरी ख़मोशी में
तब्द़ील होती है,
बच्चों की किलकारी ।
जब ,
गिरने लगता है स्वेद,
माँ के शांत माथे से ।
जब ,
गीला करती हैं धरा को,
पिता की देह से गिरीं
बूँदें पसीने की ।
जब ,
खुली हवा के लिए
तरसते हैं,भाई की
किताब के पृष्ठ
कई दिनों तक ।
जब ,
चलते-चलते ,यक-ब-यक,
ठिठक-ठिठक से
जाते हैं ,पितामह ।
जब ,
जपते-जपते अचानक
चिंता का पर्याय
बनने लगती है,
दादी की हरिनाम की माला ।
जब ,
पड़ोस द्वारा
खोदी खाई पार करने
कम पड़ती है ,
हमारी छलाँग ।
जब ,
ताने समाज के
सुनते हैं, हमारे
कान अनवरत ।
तब ,
कहीं जाकर
होती है शादी
किसी ग़रीब की
बेटी की ।लेकिन-
कितनी आभाहीन …?
कितनी पीड़ा युक्त …..?
बिल्कुल-
प्रसव-वेदना जैसी ।
-ईश्वर दयाल गोस्वामी ।
कवि एवं शिक्षक ।