संघर्षों के बीच कवि
संघर्षों के बीच जहां कवि, पिछड़ दूसरों से जाता
कुंठित होती कीर्ति कामना, मन मलीन हो अकुलाता
नींद नहीं आती है निशि में, बेहद बढ़ती बेचैनी
याद बहुत आने लगते तब, सुरा-सुंदरी या खैनी
पीपल के पत्ते से ज्यादा, तब मन चंचल हो जाता
कुंठित होती कीर्ति कामना, मन मलीन हो अकुलाता
घर में समय बीतता ज्यादा, खटपट बढ़ने लगती है
घरवाली के प्रति विरक्ति की, ज्वाल हृदय में जगती है
रक्तचाप घटता-बढ़ता है, भोजन रंच नहीं भाता
कुंठित होती कीर्ति कामना, मन मलीन हो अकुलाता
लेना – देना रंच न जिनसे, वे प्रवाद फैलाते हैं
पड़ोसियों से कहासुनी के, अवसर जब-तब आते हैं
हमदर्दी में घर आता जो, अपने गाल बजा जाता
कुंठित होती कीर्ति कामना, मन मलीन हो अकुलाता
पूर्वरचित रचना का कोई, जब संज्ञान नहीं लेता
कवि अवसाद ग्रस्त हो जाता, तब वह नया न कुछ देता
मन ही मन औरों को आगे, अपने से जब वह पाता
कुंठित होती कीर्ति कामना, मन मलीन हो अकुलाता
पलक झपकते कवि के सारे, गुण अवगुण बन जाते हैं
कवि की कविताई का लोहा, मान मित्र मुस्काते हैं
काम नहीं आता है कवि के, जब आदर्शों का छाता
कुंठित होती कीर्ति कामना, मन मलीन हो अकुलाता
महेश चन्द्र त्रिपाठी