‘संगमरमर के जैसी तराशी हो तुम’
“ग़ज़ल”
तेरा आँचल बदन से जो लहरा गया
इन अदाओं से बादल भी बदरा गया.
आग दरिया में जैसे लगी हो मगर
मैं जमीं पर किनारों से टकरा गया.
संगमरमर के जैसे तराशी हो तुम
जब से देखा है तुमको मैं पथरा गया.
उड़ रही है बसंती पवन झूमकर
प्रीत का था समंदर, जो गहरा गया.
संग दिल हो ,हसीं हो बहुत नाज़नी
देखकर रूप – रंगत मैं चकरा गया.
सज रहा है सितारों सा तेरा बदन
रातरानी के फूलों को निखरा गया.
जगदीश शर्मा सहज
अशोकनगर